पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
।। श्री: कृपा ।।
पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – परदोष-दर्शन अभाव, पारमार्थिक-प्रवृत्तियाँ अकिंचिन्न विनय-भाव और निराभिमानता परमात्मा को रिझाने के अचूक उपाय हैं…! परदोष-दर्शन एक मानसिक रोग है। जिसके मन में यह रोग उत्पन्न हो गया है, वह दूसरों में अविश्वास, भद्दापन, मानसिक व नैतिक कमजोरी देखा करता है। अच्छे व्यक्तियों में भी उसे त्रुटि और दोष का प्रतिबिम्ब मिलता है। अपनी असफलताओं के लिए भी वह दूसरों को दोषी ठहराता है। संसार एक प्रकार का खेत है। किसान खेत में जैसा बीज फेंकता है, उसके पौधे और फल भी वैसे ही होते हैं। प्रकृति अपना गुण नहीं त्यागती। आपने जैसा बीज बो दिया, वैसा ही फल आपको प्राप्त हो गया। बीज के गुण वृक्ष की पत्ती-पत्ती और अणु-अणु में समाये हुए है। आपकी भावनाएँ ऐसे ही बीज हैं, जिन्हें आप अपने समाज में बोते है और उन्हें काटते हैं। आप इन भावनाओं के अनुसार ही दूसरे व्यक्तियों को अच्छा-बुरा समझते हैं। स्वयं अपने अंदर जैसी भावनाएँ लिए फिरते है, वैसा ही अपना संसार बना लेते हैं। आइने में अपनी ओर से कुछ नहीं होता। इसी प्रकार समाज रूपी आइने में आप स्वयं अपनी स्थिति का प्रतिबिम्ब प्रतिदिन प्रतिपल पढ़ा करते हैं। पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – हमारे सुख का कारण हमारी सदभावनाएँ ही हो सकती है। अच्छा विचार, दूसरे के प्रति उदार भावना, सद्चिंतन, गुण-दर्शन ये दिव्य मानसिक बीज हैं, जिन्हें संसार में बो कर हम आनंद और सफलता की मधुरता लूट सकते हैं। शुभ भावना का प्रतिबिम्ब शुभ ही हो सकता है। गुण-दर्शन एक ऐसा सदगुण है जो हृदय में शान्ति और मन में पवित्र प्रकाश उत्पन्न करता है। दूसरे के सदगुण देखकर हमारे गुणों का स्वत: विकास होने लगता है। हमें सदगुणों की ऐसी सुसंगति प्राप्त हो जाती है, जिसमें हमारा देवत्व विकसित होता रहता है। सदभाव पवित्रता के लिए परमावश्यक हैं। इनसे हमारी कार्य शक्तियाँ अपने उचित स्थान पर लगाकर फलित-पुष्पित होती है। हमें अंदर से निरंतर एक ऐसी सामर्थय प्राप्त होती रहती है, जिससे निरंतर हमारी उन्नति होती रहती है…।
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पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – परदोष-दर्शन की दुर्बलता त्यागकर आत्म-दोष दर्शन का साहस विकसित कीजिए। जब दृष्टि देखने में समर्थ है तो वह गुण भी देखेगी और दोष भी। गुण औरों के और दोष अपने देखिये। जीवन में गुणों का विकास करने का यही तरीका है। “आचार्यश्री” जी कहा करते हैं कि परदोष-दर्शन करते रहने वाला व्यक्ति संसार में किसी प्रकार की उन्नति नहीं कर सकता। उसकी सारी शक्ति और सारा समय दूसरों के दोष देखने तथा उनकी खोज करने में चला जाता है। दूसरों की आलोचना करना, उनके कार्यों तथा व्यक्तित्व पर टीका टिप्पणी करना, उनके दोषों की गणना करना उनका एक व्यसन बन जाता है। दोषदर्शी व्यक्ति निःसन्देह बड़े घाटे में रहता है। “आचार्यश्री” जी ने कहा – ’’शुभ-विचार, शुभ-भावना और शुभ-कार्य मनुष्य को सुंदर बना देते हैं। यदि सुंदर होना चाहते हो तो मन से ईर्ष्या, द्वेष और वैर-भाव निकालकर दिव्य सौंदर्य की भावना करो। कुरूपता की ओर ध्यान न दो। सुंदर मूर्ति की कल्पना करो। प्रात: काल ऐसे स्थानों पर घूमने के लिए निकल जाओ, जहाँ का दृश्य मनोहर हो, सुंदर-सुंदर फूल खिले हों, पक्षी चहचहा रहे हों, उड़ रहे हों, चहक रहे हों। सुंदर पहाड़ियों पर, हरे-भरे जंगलों में और नदियों के सुंदर तट पर घूमो, टहलो, दौड़ो और खेलो। वृद्धावस्था के भावों को मन से निकाल दो और बन जाओ हँसते हुए बालक के समान सदभावपूर्ण । फिर देखिये कैसा आंनद आता है।’’ मनुष्य के उच्चतर जीवन को सुसज्जित करने वाला बहुमूल्य आभूषण सद्भावना ही है। सद्भावना रखने वाला व्यक्ति सबसे भाग्यवान है। वह संसार में अपने सद्भावों के कारण सुखी रहेगा, पवित्रता और सत्यता की रक्षा करेगा। उनके संपर्क में आने वाला प्रत्येक व्यक्ति प्रसन्न रहेगा और उसके आनन्दकारी स्वभाव से प्रेरणा प्राप्त करेगा। सद्भावना सर्वत्र सुख, प्रेम, समृद्धि उत्पन्न करने वाले कल्पवृक्ष की तरह हैं। इससे दोनों को ही लाभ होता है। जो व्यक्ति स्वयं सद्भावना मन में रखता है, वह प्रसन्न और शांत रहता है एवं संपर्क में आने वाले व्यक्ति भी प्रसन्न एवं संतुष्ट रहते हैं। अतः मन में सभी के प्रति सदैव सद्भावनाएँ रखें…।
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