नवीन चन्द्र पोखरियाल
सरसंघचालक श्री गुरुजी और फिर बालासाहब देवरस के प्रवास में उनकी छाया की तरह साथ रहने वाले डा. वासुदेव केशव (आबाजी) थत्ते का जन्म 24 नवम्बर, 1918 को हुआ था। उनका पालन स्टेट बैंक में कार्यरत उनके बड़े भाई अप्पा जी और भाभी वाहिनी थत्ते ने अपने पुत्र की तरह किया। 1939 में बड़े भाई की प्रेरणा से वे मुंबई की प्रसिद्ध शिवाजी पार्क शाखा में जाने लगे।
मुंबई से एम.बी.बी.एस. पूर्ण कर आबाजी ने प्रचारक बनने का संकल्प लिया। अतः 1944-45 में श्री बालासाहब देवरस ने उन्हें नागपुर बुला लिया। वस्तुतः बालासाहब के मन में उनके बारे में कुछ और योजना थी। अतः सर्वप्रथम उन्हें बड़कस चौक में डा. पांडे के साथ चिकित्सा कार्य करने को कहा गया।
बालासाहब चाहते थे कि श्री गुरुजी के साथ कोई कार्यकर्ता सदा रहे। अतः पहले उन्होंने आबाजी को पर्याप्त चिकित्सा का अनुभव लेने दिया। इसके बाद उन्हें शाखा विस्तार के लिए बंगाल में शिवपुर भेजा गया। उन दिनों बंगाल में संघ का काम नया था। अतः महाराष्ट्र से ही वहां प्रचारक भेजे जाते थे; पर आबाजी के प्रयास से शिवपुर से स्थानीय प्रचारक भी निकलने लगे।
1950 में संघ से प्रतिबन्ध हटने के बाद बालासाहब ने आबाजी को श्री गुरुजी के साथ रहने को कहा। इस दायित्व को निभाते हुए आबाजी ने पहले श्री गुरुजी और फिर बालासाहब के साथ लम्बे समय तक प्रवास किया। आबाजी ने इस दौरान न जाने कितने महत्वपूर्ण प्रसंग देखे और सुने; पर इनको उन्होंने कभी व्यक्त नहीं किया। श्री गुरुजी के निधन के बाद जब बालासाहब ने प्रवास प्रारम्भ किया, तो आबाजी ने उनके साथ रहते हुए एक कड़ी की भूमिका निभाई और देश भर में प्रमुख कार्यकर्ताओं से उन्हें मिलवाया।
श्री गुरुजी के साथ आबाजी सभी जगह जाते थे। अतः वे दोनों इतने एकरूप हो गये थे कि यदि किसी समारोह में किसी कारण से गुरुजी नहीं पहुंच सके और आबाजी पहुंच गये, तो गुरुजी की उपस्थिति मान ली जाती थी। बालासाहब के देहांत के बाद उन्हें ‘अखिल भारतीय प्रचारक प्रमुख’ बनाया गया। इसके साथ ही ग्राहक पंचायत, सहकार भारती, राष्ट्र सेविका समिति तथा अन्य महिला संगठनों से समन्वय बनाने का काम भी उनके जिम्मे था।
आबाजी संपर्क करने में कुशल थे तथा काम के व्यस्तता में से समय निकालकर नागपुर के कार्यकर्ताओं से मिलते रहते थे। अपने संपर्कों को जीवन्त बनाये रखने के लिए वे प्रवास के दौरान लगातार पत्र-व्यवहार भी करते रहते थे। आपातकाल के बाद जब संघ विचार की अनेक संस्थाओं को देशव्यापी रूप दिया गया, तो आबाजी के इन संपर्कों का बहुत उपयोग हुआ।
श्री गुरुजी के देहांत के बाद उन पर कई पुस्तकें लिखी गयीं। जब आबाजी से भी इसका आग्रह किया गया, तो उन्होंने कहा कि श्रीराम के साथ हनुमान जी बहुत समय तक रहे; पर श्रीराम का चरित्र ऋषि वाल्मीकि ने लिखा, हनुमान ने नहीं। यह उत्तर उनके आत्मविलोपी व्यक्तित्व का परिचायक है।
आबाजी कभी-कभी डायरी लिखते थे। उसमें उन्होंने हाथ से श्री गुरुजी के अनेक चित्र भी बनाये थे। उन्होंने डायरी में एक स्थान पर लिखा था कि उत्तंग ध्येय वाले कार्यकर्ता को विश्राम देने की सामर्थ्य तीन अक्षर के शब्द ‘मृत्यु’ में ही है। उन्होंने अपने कर्तत्व से इस श्रेष्ठ विचार को सत्य कर दिखाया और 27 नवम्बर, 1995 को चिर विश्रान्ति पर चले गये।
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