संविधान संशोधन पर पुनर्विचार या अपील का कोई प्रावधान नहीं: संसद बनाम न्यायपालिका पर मंथन

राज्यसभा सभापति ने संसद सदस्यों को संबोधित करते हुए कहा कि 2015 में संसद द्वारा सर्वसम्मति से पारित एक कानूनी व्यवस्था को राज्य विधानसभाओं ने भी मंजूरी दी थी। इसे राष्ट्रपति ने अनुच्छेद 111 के तहत स्वीकृति दी थी, जिससे यह कानूनी रूप से बाध्यकारी बन गया।

उन्होंने सांसदों से अपील करते हुए कहा,
“हमें यह विचार करने की आवश्यकता है कि भारतीय संसद से जो कानून बना, उसे राज्य विधानसभाओं ने समर्थन दिया और फिर राष्ट्रपति की मंजूरी मिली। अब, एक ओर यह प्रक्रिया है और दूसरी ओर एक न्यायिक आदेश। हमें तय करना होगा कि लोकतंत्र में कौन सा निर्णय अंतिम होना चाहिए—संसद का या न्यायपालिका का?”

भारतीय संविधान के तहत, संसद द्वारा पारित किसी भी कानून (legislation) की न्यायिक समीक्षा हो सकती है, यह देखने के लिए कि वह संविधान के अनुरूप है या नहीं। लेकिन, संवैधानिक संशोधन पर पुनर्विचार या अपील का कोई संवैधानिक प्रावधान नहीं है।

सभापति ने इस पर चिंता जताते हुए कहा कि यदि संसद द्वारा किए गए संवैधानिक संशोधन को न्यायपालिका लागू नहीं कर सकती, तो इसका क्या अर्थ निकाला जाए? उन्होंने जोर देते हुए कहा कि संसद के निर्णयों को लागू करना अनिवार्य होना चाहिए।

राज्यसभा अध्यक्ष ने कहा कि विधायिका और न्यायपालिका अपने-अपने अधिकार क्षेत्र में रहते हुए ही कार्य करें, तो लोकतंत्र सुचारू रूप से चलेगा। इस संदर्भ में, उन्होंने विपक्ष के नेता और सत्ता पक्ष के नेता के साथ बैठक कर इस मुद्दे पर विचार किया।

उन्होंने बताया कि सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ने भी पारदर्शिता दिखाते हुए सभी सूचनाएं सार्वजनिक कीं, लेकिन विपक्ष के नेता और सत्ता पक्ष के नेता ने सुझाव दिया कि इस मुद्दे पर सभी फ्लोर लीडर्स से चर्चा होनी चाहिए। इसके लिए आज शाम 4:30 बजे एक बैठक बुलाई गई है।

यह विवाद केवल एक कानूनी या न्यायिक समस्या नहीं है, बल्कि यह सवाल उठाता है कि क्या भारतीय संसद की संप्रभुता और सर्वोच्चता बनी रहेगी या न्यायिक हस्तक्षेप से बाधित होगी?

आगामी बैठक से यह तय होगा कि क्या संविधान संशोधन के मुद्दों पर न्यायपालिका और विधायिका के बीच स्पष्ट रेखाएं खींची जाएंगी, या फिर यह विवाद आगे और गहराएगा।

Comments are closed.