लिव-इन संबंधों का तामसी भ्रमजाल : प्रेम या सामाजिक भ्रम?

श्रद्धा वॉकर की वह क्रूर, अमानवीय, जंगली और बर्बर हत्या को कौन भूल सकता है, जो 2022 में दिल्ली में उसके लिव-इन  साथी द्वारा की गई थी? वह न केवल शारीरिक हिंसा की शिकार थी, बल्कि मानसिक और आर्थिक शोषण की भी शिकार हो  रही थी। इस घटना ने एक बार फिर भारतीय समाज का ध्यान लिव-इन संबंधों के विनाशकारी प्रभाव , असुरक्षा, अस्थिरता,सामाजिक नियमों का उल्लंघन तथा ऐसे संबंधों के कारण जीवन के अर्थहीन होने की  दिशा की ओर खींचा। लिव-इन संबंध वह व्यवस्था है जिसमें दो व्यक्ति बिना विवाह के एक जोड़े के रूप में एक ही छत के नीचे विवाहित जोड़ों की रहते हैं।

अमेरिका और कुछ अन्य पश्चिमी देशों में पारिवारिक व्यवस्था लंबे समय से तनाव में है। टूटे हुए परिवार एवं उसके फलस्वरूप बिना माता अथवा बिना पिता के प्यार के  पलने वाले बच्चे पिता के बिना बच्चे जो पारंपरिक माता-पिता के प्यार, देखभाल और,  मूल्यों के प्रेषण और आशीर्वाद के बिना ही पल जाते हैं यह इन देशों की कड़वी सच्चाई हैं।

पारिवारिक बंधन में मिलने वाले भावनात्मक, मानसिक, वित्तीय, आध्यात्मिक और शारीरिक समर्थन से ये बच्चे वंचित रहते हैं। वे अकेले अभिभावक के साथ ही पलते हैं और चिंता, अवसाद, व्यवहार की  समस्या, क्रोध और आक्रामकता जैसी समस्याओं से  एक समय में पीड़ित भी हो जाते हैं। इन बच्चों को वे सभी लाभ नहीं मिल पाते, जो एक स्थिर और संरचित पारिवारिक वातावरण से मिलने चाहिए। फलतः वे शराब और नशे के अंधेरे चक्रव्यूह में फंसते जाते हैं। इसका  प्रभाव उनकी पढ़ाई और समग्र विकास पर पड़ता है। आज, अमेरिका सहित पूरी दुनिया मजबूत भारतीय पारिवारिक प्रणाली के बारे में बात कर रही है। विदेशी आक्रमणकारियों द्वारा हजारों वर्षों के आक्रमण और शासन के बावजूद, भारत और भारतीय परिवार कैसे अखंडता संरक्षित करते रहे, इसे समझने के लिए वे हमारी परिवार प्रणाली ओर देख रहे हैं ।इन बच्चों के व्यवहार में उतार-चढ़ाव होने के कारण  समाज में व्यावहारिक आदान-प्रदान में भी समस्याएँ  उत्पन्न होती हैं। साथ ही, इन समस्याओं के चलते उनकी शैक्षिक और मानसिक विकास की राह भी कठिन हो जाती है । इस प्रकार, पारिवारिक विखंडन से न केवल व्यक्तिगत जीवन पर असर पड़ता है, बल्कि पूरे समाज की कार्यक्षमता और प्रगति भी प्रभावित होती है। जैसा कि देखा जा रहा है, उच्च योग्यता वाले पदों पर ज्यादातर अन्य देशों के लोग ही अधिकतर होते हैं, क्योंकि इन देशों के नागरिकों का पारिवारिक माहौल उनकी मानसिक और भावनात्मक स्थिति को मजबूत बनाता है, जिससे वे उच्च स्तर पर काम करने के लिए तैयार रहते हैं।पिछले कुछ वर्षों में भारतीय पारिवारिक व्यवस्था पर गंभीर हमला होता हुआ दिखाई दे रहा है। खासकर पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव के कारण हमारे पारिवारिक मूल्य और परंपराएं धीरे-धीरे कमजोर होती जा रही हैं। कुछ भारत-विरोधी तत्व इस व्यवस्था को तोड़ने की कोशिश कर रहे हैं और समाज को खंडित करने की योजना बना रहे हैं। यह एक गंभीर चिंता का विषय है, क्योंकि यह हमारी सामाजिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक संरचना को प्रभावित कर सकता है।

हमारी युवा पीढ़ी को इस समस्या को समझने और इसके खिलाफ कदम उठाने की आवश्यकता है। भारत की संस्कृति हजारों वर्षों पुरानी है, और इसमें परिवार, विवाह और संबंधों  की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। भारतीय समाज में विवाह को जीवन के 16 संस्कारों में से एक सबसे पवित्र, शुभ और महत्वपूर्ण संस्कार माना जाता है। यह केवल दो व्यक्तियों का मिलन नहीं, बल्कि समाज और परिवार की नींव का निर्माण करता है।

भारतीय परंपरा के अनुसार, विवाह एक धार्मिक और सामाजिक संस्कार है, जिसमें अग्नि को साक्षी मानकर सात फेरे और सात वचन लिए जाते हैं। मिलन, जो भावनात्मक और कानूनी बंधनों के साथ-साथ सामाजिक सम्मान से सुशोभित होता है। विवाह संस्था धार्मिक भारतीय जीवन की नींव का निर्माण करती है। अग्नि को साक्षी मानकर सात फेरे और सात वचन लिए जाते हैं। नवदम्पत्ति  चार पुरुषार्थों—धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का एक साथ अनुसरण करने का संकल्प लेते हैं। इस तरह विवाह केवल एक व्यक्तिगत संबंध नहीं, बल्कि सामाजिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक प्रभावों से ओत-प्रोत होता है। प्राचीन भारतीय धर्मग्रंथों में उल्लेखित गंधर्व विवाह में भी वही प्रतिबद्धता  थी, जो पारंपरिक विवाह में होती है, यद्यपि  सार्वजनिक रूप से नहीं,दम्पत्ति स्वयं के  समक्ष विवाह के वचन लेते थे। इस प्रकार, विवाह सिर्फ व्यक्तिगत संबंध नहीं होता, बल्कि यह एक सामाजिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक प्रतिबद्धता  से जुड़ा होता है साथ-साथ सामाजिक सम्मान से सुशोभित होता है। विवाह की संस्था धार्मिक भारतीय जीवन की नींव का निर्माण करती है । वहीं, पश्चिमी देशों की लिव-इन संस्कृति ने इस पारंपरिक अवधारणा को चुनौती दी है। लिव-इन संबंधों में कोई कानूनी, सामाजिक या धार्मिक बंधन नहीं होते, और यह परिवार और समाज के पवित्र आधार को कमजोर करते हैं। भारतीय संस्कृति के अनुसार, यह अनैतिक और सामाजिक दृष्टि से कलंकित माना जाता है। हमारी प्राचीन धार्मिक शिक्षा में भी यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि विवाह में शाश्वत प्रतिबद्धता  होती है, जो केवल पारंपरिक विवाह में देखी जाती है।

भागवत पुराण में कहा गया है कि महिला-पुरुष का विवाह के बिना एक साथ रहना कलियुग की शुरुआत है। गीता में कहा गया है कि यदि कोई शारीरिक संबंध चाहता है, तो पहले विवाह करना चाहिए— यह संतान की जिम्मेदारी सुनिश्चित करने के लिए था। गीता का एक श्लोक में कहा गया है:

“संकरो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च। पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः॥”

 अर्थात्—विवाह के बिना जन्मी संतानें अवांछित जनसंख्या को जन्म देती हैं, जो परिवार और परिवार की परंपराओं को नष्ट करने और अधपतित जीवन का कारण बनता है। ऐसे परिवारों के कुल का नाश होता है, क्योंकि उन बच्चों का स्वस्थ पोषण रुक जाता है, सामुदायिक परियोजनाएं और परिवार कल्याण गतिविधियां ध्वस्त  हो जाती हैं। अतः, हमारे प्राचीन ग्रंथों  में नैतिकता और नैतिक तर्क का अत्यंत महत्व हैं।

अपनी प्राचीन मूल्यों  पर विश्वास, परंपराओं, संस्कृति और मूल्यों का पालन इतना महत्वपूर्ण क्यों है ? जब सारा विश्व  वस्त्र  पहनना और भूगोल सीख रहा था, तब हमारे ऋषि-मुनि तपस्या के माध्यम से जीवन के रहस्यों को सुलझाने में महान शोध कर रहे थे। हमारे महान वैज्ञानिक जैसे वराहमिहिर, भास्कर, आर्यभट्ट विज्ञान और गणित की खोज कर रहे थे, जिसमे शून्य का आविष्कार भी निहित है। यदि हमारा प्राचीन विज्ञान, ज्ञान और मूल्य प्रणाली इतनी समृद्ध है, तो हमारी संस्कृति गलत कैसे हो सकती है? हम इन परंपराओं का हजारों वर्षों से पालन करते आ रहे हैं, और इसी कारण भारत अपनी संस्कृति को सुरक्षित रखते हुए एक जीवंत राष्ट्र के रूप में फल-फूल रहा है। भले ही पति-पत्नी के बीच कुछ मतभेद या संघर्ष हों, हम बात करते हैं, सहमति एवं असहमति के मध्य समस्या निवारण  करते हैं, और हमारे बड़े-बुजुर्ग भी मध्यस्थता में सहयोग करते हैं। हमें यह नहीं  भूलना चाहिए कि समाज का व्यवहार “बहुसंख्यक वर्ग” से आंका जाता है, जो अभी भी ब्रह्मचारी जीवन (एक ही साथी, पति-पत्नी के साथ संबंध) का पालन करने वाले भारतीयों का है। आधुनिक विज्ञान आनुवंशिकी के अनुसार —एक पुत्री में XX गुणसूत्र होते हैं, 50% पिता से और 50% माँ  से। अगली पीढ़ी में उसकी बेटी में उसकी माँ  का 25% DNA होगा, और सात पीढ़ियों के बाद एक दंपति का DNA 1% रह  जाएगा। यह भारत में विवाहित दंपति के सात जन्मों के अटूट बंधन की आधुनिक वैज्ञानिक व्याख्या है। कदाचित आज युवा पीढ़ी  उन्मुक्त रूप से जीना चाहती है—कोई अपेक्षा, कोई बंधन, कोई जिम्मेदारी नहीं:

“यह मेरा जीवन है, मैं जैसा चाहूँ  जिसके साथ चाहूँ , वैसे जीऊँगी  । यह मेरा दायरा है, मेरा पैसा है,

तुम मुझसे सवाल मत करो, मैं तुमसे सवाल नहीं करूँगी …।”

पूरी तरह उन्मत्त, निरकुंश जीवन। आज मैं एक लिव-इन साथी के साथ रह रही हूँ , यदि यह पसंद नहीं आया, तो कल मैं किसी और के साथ रहूँगी । लेकिन कब तक? चूंकि लिव-इन संबंध विवाह-पूर्व यौन संबंधों को भी समर्थन देता है, इसलिए बच्चे के जन्म की संभावना भी होती है। क्या ऐसे बच्चे कभी वह प्यार और सम्मान पाएंगे  जो पारंपरिक विवाह से जन्मे बच्चों  को दादा-दादी और परिवार के अन्य सदस्यों से मिलता है? क्या समाज उन्हें पारंपरिक संतान की तरह देखेगा? कदाचित नहीं। अंततः ऐसे बच्चे मानसिक उत्पीड़ना से पीड़ित हो जाते हैं। बच्चे के बड़े होने पर उसके सरंक्षण तथा पालन-पोषण की समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं। हालांकि भारतीय अदालतों ने ऐसे बच्चों को वैध घोषित किया है, लेकिन गरिमा के साथ जीने का उनका अधिकार कौन सुरक्षित करेगा? क्या उन्हें पैतृक संपत्ति में हिस्सा मिलेगा? भारत में लिव-इन संबंध एक जटिल कानूनी और सामाजिक परिदृश्य में मौजूद हैं, जिसके कारण ऐसे बच्चों को परिवार और समाज से बहिष्कार और अस्वीकृति का सामना करना पड़ता है।

ऐसे अविवाहित जोड़े किराये के मकान, संयुक्त बैंक खाते या विवाह के प्रमाण के बिना कानूनी सेवाओं में कठिनाइयों का सामना भी कर सकते हैं। लिव-इन संबंध विवाह संस्था के प्रतिबद्ध जीवन से बचने का प्रयास है, और दीर्घकालिक स्थिर संबंध केवल विवाह की पवित्र संस्था में ही संभव है। कुछ युवा जोड़े बच्चों को भी जन्म देना नहीं चाहते, क्योंकि वे बच्चों को पालना बोझ मानते हैं। यदि उनके माता-पिता ने उन्हें जन्म न दिया होता, तो क्या वे यह खूबसूरत जीवन देख पाते? केवल आज की क्षणिक खुशी और स्वयं के सुख के बारे में सोचना, और इसके भविष्य के परिणामों पर विचार न करना, सभ्यता के रचनात्मक प्रगति के दृष्टिकोण से एक बुद्धिमान विचारधारा कदापि नहीं हो सकती।

यदि कुछ वर्षों तक लिव-इन में रहने के बाद, लिव-इन साथियों के बीच मतभेद उभरें और वे अलग होने का फैसला करें, तो परिणाम क्या होगा? पुरुष पक्ष अपने लिए कोई अन्य साथी पा लेगा, लेकिन क्या इस बात की क्या निश्चितता है कि महिला भी अपने लिए कोई अन्य साथी पा लेगी? जीवन की स्थिरता और सुरक्षा कहाँ है? वह महिला अपना शेष जीवन कैसे बिताएगी? इस टूटे हुए लिव-इन संबंध से उसे क्या मिलता है? अकेलापन, अवसाद, सामाजिक अस्वीकार्यता? हमारा भारतीय समाज कितना भी “आधुनिक” क्यों न हो जाए, जनमानस में अभी भी यह सामाजिक कलंक माना जाता है  कि वह महिला लिव-इन संबंध में थी, और बहुत कम पुरुष उसे स्वीकारना चाहेंगे। ये सुंदर जीवन निर्वाह करने के लिए एक भरोसेमंद जीवनसाथी की आवश्यकता होती है, जो सुख-दुख सदैव एक चट्टान की तरह में हमारे साथ अडिग खड़ा रह सके। ऐसी महिलाओं को अकेले जीवन जीने का डर हमेशा सताता रहेगा। अतः, इन परिस्थितियों में  महिलाएँ ही सर्वाधिक पीड़िता होंगी, उन्हें यह समझना चाहिए। ऐसा जीवन सुख, मन की शांति, भावनात्मक और शारीरिक स्थिरता, सुरक्षा, अर्थ और जीवन का सार नहीं ला सकता! हमारी महिलाएँ सुखद और शांतिपूर्ण जीवन जीने के अधिकार से क्यों वंचित रहें, जिसकी वो पात्र हैं? भौतिकवाद और शारीरिक सुख केवल क्षणिक अनुभूतियाँ हैं। इसलिए, हमारी पुत्रियों और महिलाओं को स्वयं से यह प्रश्न  पूछना चाहिए—कि जीवन यात्रा में मुझे वास्तव में सच्ची प्रसन्नता और सुख कौन देगा? मेरी आत्मा क्या चाहती है? मेरे लिए सर्वाधिक क्या महत्वपूर्ण है—क्षणिक, अल्पकालिक सुख, या दीर्घकालिक खुशी, स्थिरता, सुरक्षा और जीवन में शांति? एक ग्लानिमय जीवन या एक गरिमामय जीवन?

ये जीवन इतना अनमोल और सुंदर है, और भारतीय महिलाएँ इतनी सक्षम, सशक्त और प्रतिभाशाली हैं, तो हम अपनी युवावस्था के सुनहरे और फलदायी वर्षों को लिव-इन संबंधों के गुमनामी भवरों में क्यों खो दें? समाज में सुधार की चिंगारी समाज के भीतर से ही सुलगेगी। सब कुछ कानून या न्यायपालिका द्वारा लागू नहीं किया जा सकता। मूल्यों, नैतिकता और चरित्र को बनाए रखना एक सुघड़ समाज का कर्तव्य और जिम्मेदारी है। हमारे जनमानस को समझना होगा कि लिव-इन संबंध में सहवास नैतिक और सामाजिक रूप से अस्वीकार्य है और यह भारतीय समाज के सुदृढ़ सामाजिक ताने-बाने को ध्वंस कर देगा। हमारी शक्तिशाली  पारिवारिक व्यवस्था हमारी संस्कृति का ताकत और गौरव है, जिसने युगों से भारत को सुरक्षित रखा है। हमारी बहनें और महिलायें ही लिव-इन पश्चिमी संस्कृति की व्यवस्था की सबसे बड़ी शिकार हैं, अतः उनसे ये अनुग्रह है कि अंततः वे इन भ्रमित लिव-इन संबंधों के मायाजाल से बाहर निकलकर अपनी जड़ों, हमारी प्राचीन परंपराओं और विवाह की संस्था में विश्वास की ओर लौटें – क्योंकि हमारे संस्कार ही एक सुखद, गौरवमय और शांतिपूर्ण जीवन का आधार हैं।

यह समय है कि हम अपनी संस्कृति, परंपराओं और पारिवारिक संरचनाओं के महत्व को समझें और पश्चिमी प्रभावों से बचें। हमारी युवा पीढ़ी को यह जिम्मेदारी लेनी होगी कि वे भारतीय मूल्यों की रक्षा करें और पारिवारिक व्यवस्था को मजबूत बनाए रखें।

डॉ. कल्पना बोरा, भौतिकी विभाग की प्रोफेसर, गौहाटी विश्वविद्यालय, वैज्ञानिक, लेखक, और चिंतक  हैं। उन्होंने कई अंतर्राष्ट्रीय शोध पत्र लिखे हैं और समाजिक मुद्दों पर लेखन कार्य किया है।

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