बाहर के खालीपन और समृद्धि से आत्म विकास का संबंध

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अजय केशरी

बाहर का खालीपन ही अंदर की गहराई और सघनता को जन्म देता है! जबकि बाहर की समृद्धि अक्सर अंदर की निर्धनता और खोखलेपन को बढ़ावा देती है! इसलिए, अंदर की सच्ची समृद्धि को अनुभव करने के लिए, हमें बाहर की शून्यता में जीने की हिम्मत करनी होगी और अपने अंदर की गहराई को खोजना होगा।
इस प्रकार यदि हमारा स्थूल शरीर बाहर की सघनता को दर्शाता है जो दरअसल खोखला है, इसके उलट हमारे अंदर की शून्यता ही वास्तविक सघनता है जो अनंत, अविकारी, शाश्वत है और और यही शून्यता आत्मा है! शक्ति तो शून्य में ही अंतर्निहित है , शक्ति में शून्य कदापि वास नहीं करती! शून्य से ही सारी अर्थपूर्ण चीजें है।
एक घर की दीवार आकाश के बीच का अलगाववादी उपकरण है! घर की चारों दीवारों के बीच के आकाश की सुंदरता बाहर की शून्यता पर ही निर्भर करती हैं अगर बाहर शून्य नहीं हो तो घर में शून्य नहीं बना सकते! घर की शून्यता और बाहर की शून्यता के बीच दीवार सदृश ही उसमें बैठे व्यक्ति और उसके अंदर की शून्यता के बीच स्थूल शरीर की उपस्थिति है शून्यता और सघनता के माध्यम से आत्मा, शरीर और अस्तित्व के संबंध को बहुत सुंदरता से समझा जा सकता है।
बाहर की दुनिया में जितनी भी वस्तुएँ हैं, वे सब परिवर्तनशील और क्षणभंगुर हैं। वहीं अंदर की दुनिया शांत, स्थायी और अनंत है। बाहरी भौतिक समृद्धि मनुष्य को तात्कालिक सुख देती है, परंतु दीर्घकालीन संतोष नहीं। इसके विपरीत, आंतरिक गहराई से उत्पन्न शांति व्यक्ति को स्थायी आनंद प्रदान करती है। जब हम अपने चारों ओर खालीपन देखते हैं, तो वह हमें अंदर झाँकने का अवसर देता है। बाहर की शून्यता एक दर्पण की तरह होती है, जो हमारे भीतर की गहराई को प्रतिबिंबित करती है। आंतरिक समृद्धि तब आती है जब हम स्वयं को जानने लगते हैं। स्वयं को जानने का सबसे अच्छा माध्यम है – मौन और एकांत। हम इसकी गहराइयों में जितना अधिक प्रवेश करते हैं उतनी ही अधिक चेतना के उच्च स्तर की ओर बढ़े चले जाते हैं। यही चेतना की वृद्धि हमारे अंदर की समृद्धि और सघनता है! यही अवस्था वास्तविक स्वरूप का अभिदर्शन कराने में सक्षम होती है।

स्थूल शरीर हमें दुनिया से जोड़े रखता है, पर आत्मा हमें ब्रह्म से जोड़ती है। इसे यूं भी कह सकते हैं कि आत्मा ही ब्रह्म है ! दोनों एक दूसरे के पर्यायवाची हैं। आत्मा में जो शून्यता है, वही वास्तव में सर्वाधिक सघन है। यह सघनता विचारों, भावनाओं और अनुभवों से नहीं, बल्कि पूर्ण मौन से आती है। मौन का अर्थ केवल शब्दों का अभाव नहीं, बल्कि मानसिक हलचल का अंत और माया से विलगाव है। जब बाहर सब कुछ समाप्त हो जाता है, तभी अंदर सब कुछ शुरू होता है। शक्ति और समृद्धि, जो हम बाहर खोजते हैं, वह अंदर के शून्य में छुपी होती है। शून्यता में ही ऊर्जा का स्रोत होता है। जैसे आकाश सब कुछ समेटता है, वैसे ही आत्मा भी सब कुछ समाहित करती है। आकाश की शून्यता के बाहर कोई संघनता नहीं है! आकाश के बाहर शून्य होने के कारण ही आकाश के भीतर कुछ सृजनात्मकता है! इसलिए यदि वैज्ञानिक रूप से इस बात पर प्रश्न किया जाए कि आकाश के बाहर क्या है तो इसका सीधा उत्तर है कुछ भी नहीं या शून्यता! एक घर की दीवारें बाहर के आकाश से हमें अलग करती हैं। लेकिन उन दीवारों के बीच का शून्य ही हमें एक घर का अनुभव देता है क्योंकि इसी शून्यता में सृजनात्मकता भी है!

अगर मात्र दीवारें हों और शून्यता न हो, तो वह घर नहीं, केवल ईंट-पत्थर का ढांचा होगा। शून्य ही वह माध्यम है, जिसमें जीवन के सुर सृजित होते हैं वैसे ही जैसे वीणा के तारों के बीच की खाली जगहों से संगीत उत्पन्न होता है, वैसे ही आत्मा के भीतर का शून्य ही चेतना को उत्पन्न करता है।
स्थूल शरीर आत्मा की दीवार की तरह है, जो उसे प्रकट करता है लेकिन छुपा भी देता है। जब तक हम केवल शरीर को सत्य मानते हैं, हम आत्मा की पहचान नहीं कर पाते। शरीर की सघनता में उलझे रहने पर आत्मा का अनुभव असंभव है। आत्मा को महसूस करने के लिए शरीर के पार जाना पड़ता है। यही पार जाना ही ध्यान है, साधना है, आत्म-अन्वेषण है। शून्यता को अनुभव करना साहस का कार्य है, क्योंकि यह अज्ञात में प्रवेश करना है। परंतु इसी अज्ञात में ही सच्चा ज्ञान छुपा है। इसी शून्यता में सघनता के लिए पर्याप्त जगह भी है!

बाहर की वस्तुएँ हमें भ्रमित करती हैं, जबकि भीतर की शून्यता हमें स्पष्टता देती है। हर एक सांस जो बाहर से आती है उसमें आनंद नहीं वरन् जो उसके चलते अंदर से जो जीवंतता आती है, उसमें परमानंद है!। बाहरी दुनिया का अनुभव अस्थायी है, पर आंतरिक आत्मा का अनुभव शाश्वत है। जो व्यक्ति बाह्य शून्यता में जीता है, वही सच्चा ज्ञानी होता है, उसे दुःख नहीं होता, उसके लिए सबकुछ घड़े के दीवारों के समान लगने लगता है,जो नश्वर है। बाहरी क्रिया-कलापों में लिप्त रहकर हम आत्मा को भूल जाते हैं। आत्मा वह मौन है जो चंचल मन के पीछे छिपा होता है। जितना विचारों को हम शांत करते जाते हैं, उतना ही सबल और समृद्ध होते जाते है। स्थूल शरीर को साधन बनाकर आत्मदर्शन की यात्रा जीवन का उद्देश्य है। बाहरी खालीपन एक अवसर प्रदान करता है, आत्मा से जुड़ने का। उसी खालीपन में बैठकर ध्यान संकेंद्रित होता है, और ध्यान से आत्मज्ञान।

आत्मा में वास करने वाला शून्य हमें परम सत्य से जोड़ता है। जो आत्मा को जानता है, वही ब्रह्म को जानता है। दरअसल आत्मा और ब्रह्म पर्यायवाची हैं! जब भीतर से व्यक्ति सघन हो जाता है, तो बाहर की सब चीज़ें अर्थहीन लगने लगती हैं। बाहरी खोखलापन कभी आत्मा को तृप्त नहीं कर सकता। आत्मा के शून्य में ही परम तृप्ति है। दीवारें कभी भी सम्पूर्ण जगत को नहीं रोक सकतीं, वे केवल सीमित दृष्टिकोण को सीमित करती हैं। हमारे शरीर की दीवारें आत्मा को नहीं रोक सकतीं, वे केवल पहचान को ढकती हैं। जब हम अपने भीतर झांकते हैं, तब सच्चा घर हमें दिखाई देता है। शून्यता से ही सृजन होता है – चाहे वह विचारों का हो, कला का या जीवन का।
जब महात्मा बुद्ध एक राजकुमार के रूप में समस्त बाह्य समृद्धि से सम्पन्न थे तो उनके अंदर खोखलापन था और जब वो बुद्ध बने तो अन्दर सारी समृद्धि थी और बाहर खोखलापन या शून्यता थी!

शून्य की यह पूर्णता, यही अंतिम सत्य है। वही शून्य, जिसे लोग खाली समझते हैं, वास्तव में सबसे सघन, सबसे जीवंत, और सबसे शक्तिशाली तत्व है। बाहरी सन्नाटा केवल तभी सार्थक होता है जब हम उसकी आंतरिक प्रतिध्वनि को सुनना सीखें। बाहरी समृद्धि यदि भीतर का खोखलापन बढ़ाए, तो जीवन निरर्थक हो जाता है। लेकिन अगर बाहर की शून्यता भीतर की संपन्नता को जन्म दे, तो वह जीवन सार्थकता की ओर उन्मुख हो जाता है। इसीलिए, आत्मदर्शन का अनुभव केवल बाह्य शून्यता में ही संभव है – और वही शून्यता हमारी आंतरिक सघनता है।

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