पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
।। श्री: कृपा ।।
पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – अपनी इच्छाओं को कम करें और स्वयं संतुष्ट रहें…! धन आवश्यकता पूर्ति के लिए है। यदि वह इच्छा का रूप ले लेता है तो यह तनाव उत्पन्न करने का कारण बन जाता है। सादगी, दयालुता, शुभ भावना, शुभ कामना की इच्छाओं से मस्तिष्क से अच्छे रसायन निकलते हैं, जिससे मनुष्य संतुष्ट एवं स्वस्थ रहता है। संसार में ऐसा कोई भोग नहीं है जिसका वियोग न हो। अतः जिसका वियोग निश्चित है, वह नाशवान और अस्थिर है और सुख का कारण भी नहीं है। वस्तुतः जगत की वस्तुओं से सुख की प्रतीति किसी धर्म से नहीं अपितु अज्ञान से है। अतएव मानव का कर्तव्य है कि जिस उपाय द्वारा वह मोह से मुक्त होकर आत्म उपलब्धि करा सकता है, वही उपाय करे। आत्मोन्नति ही मनुष्य का ध्येय है, लक्ष्य है। इस आत्मोन्नति का मूल साधन कर्म है। धर्म और कर्म के बिना जीवन शून्य है। धर्मत्व जीवन का नियामक है। प्रश्न यह है कि धर्म क्या है? जो सभी वस्तुओं को धारण करता है अर्थात्, जो धारण किया जाए वही धर्म है। धर्म ज्ञान होने से ही मनुष्य अन्य सभी प्राणियों से श्रेष्ठ है। सभी जीव धर्म के द्वारा ही न केवल रक्षित हैं, बल्कि परिचित भी हैं। मनुष्य इस विषय में अनेक अंशों में स्वाधीन है, जबकि अन्य जीव प्रकृति के आधीन हैं। अतः धर्म साधना के लिए मनुष्य शरीर ही सबसे उपयुक्त है। देवताओं तक का भी धर्म है एवं वह धर्म ही धारण किए हुए हैं। जो मनुष्य धर्म का अनुशीलन करते हैं, यथार्थ में वे ही मनुष्य हैं, और जो आहार, निद्रा, भय व मैथुन आदि में रत हैं, वे मनुष्य शरीर में पशु समान हैं।अतः मनुष्य जीवन प्राप्त होने पर धर्मज्ञान प्राप्त करना प्रधान कर्तव्य है।साधना-क्षमता के कारण मनुष्य सृष्टि की श्रेष्ठ रचना है। वह शक्ति धर्मज्ञान ही है। प्रभु ने असीम कृपा कर मानव को वह शक्ति दी है जिससे उन्नति की चरम सीमा पर पहुंचा जा सकता है..।
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पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – आलस्य-प्रमाद जीवन की सबसे बड़ी बाधा है, अतः स्वयं के प्रति सचेत और क्रियाशील रहें। स्वयं के प्रति सचेत वही है, जागृत वही है जिसने अपने भीतर के अज्ञान को अनुभव कर उसका समूलोच्छेदन किया हो। जिसने अपने को ही नहीं जीता वह औरों को कैसे जीत सकता है? “आलस्य” और “परिश्रम” दोनों प्रकार के भाव मनुष्य के अंदर होते हैं, यह तो हमारे ऊपर है कि हम कौन-सा गुण अपनाते हैं। “आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महानरिपुः …” अर्थात्, आलस मानव के शरीर में रहने वाला सबसे बड़ा शत्रु है। आलस्य करने का मतलब अपने कर्तव्यों से विमुख होना और समय को व्यर्थ ही नष्ट करना है। प्रमाद का अर्थ है – जो प्राप्त है उसका तिरस्कार, उसके प्रति उदासीनता। जिनका स्वयं पर नियंत्रण नहीं है वह परंपरा के अधीन नहीं है। मनुष्य को ईश्वर की तरफ से सबसे अनमोल उपहार मिला है – वर्तमान। सृजन की कला देव दुर्लभ कला है और यह कला तब सिद्ध होती है, जब आप प्रमाद को अपने पास फटकने नहीं देते। कल नहीं करना, आज ही करना, अभी, इसी क्षण …। योग्यता प्राप्त करना कर्मों पर आधारित है, जबकि इसका उपयोग करना आपके पुरुषार्थ पर निर्भर है। मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु आलस्य है, जो उसे पुरुषार्थ करने से रोकता है। यहाँ ये पंक्तियाँ प्रेरणा देती हैं – “अब तो उठो क्यों पड़े हो, व्यर्थ सोच-विचार में ! सुख तो दूर जीना भी कठिन है, श्रम बिना संसार में ” …।।
पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – मनुष्य के दु:ख का, संताप का, परेशानियों व दुर्गति का कारण है – कामना, इच्छा, वासना। इच्छा पूरी होती है तो सुख होता है और इच्छा की अपूर्ति में दु:ख होता है। कामना की कोख में ही क्रोध पल रहा होता है। इच्छाओं की पूर्ति नहीं होने पर ही क्रोध की उत्पत्ति होती है। अगर कोई क्रोधी है तो इसका कारण है उसके भीतर इच्छाएं दबी पड़ी हैं। वर्तमान में, तनाव भरे माहौल में कार्य करने के कारण लोग इससे बचने के लिए व्यसनों का सहारा लेते हैं, जो कि गलत है। चतुर वही है, सुजान वही है जो अपने अज्ञान को मिटाकर इच्छा रहित हो गया है। पूज्य आचार्यश्री जी ने कहा – यदि आपका पुरुषार्थ शास्त्र-सम्मत हो, सद्गुरु द्वारा अनुमोदित हो, लक्ष्य के अनुरूप हो तो जीवन में सफलता अवश्य मिलती है….।
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