पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
।। श्री: कृपा ।।
पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – विचार-उन्नतता, भाव-उच्चता, निष्कामता और सतत् भगवद-स्मरण जीवन-उत्कर्षता के स्वाभाविक साधन हैं..! शारीरिक स्वास्थ्य तथा सौंदर्य भी स्वस्थ एवं प्रसन्न मन पर ही निर्भर है, अतएव स्वस्थ शरीर के लिए स्वस्थ मन का होना अनिवार्य है। उन्नत विचारों से मन स्वस्थ बनता है। उन्नत विचार मनुष्य को प्रसन्न एवं सुखी बनाते हैं। उन्नत विचार ही हैं – जीवन की उन्नति का आधार। उन्नत विचार मनुष्य की अनमोल पूंजी है। हम जो सोचते हैं, उससे शरीर की ग्रन्थियों में एक प्रकार का रस द्रवित होता है। यदि विचार सुखदायक, स्फूर्तिवान तथा आशाप्रद होंगे तो शरीर के नन्हें-नन्हें कोषों तथा रोमों को भी नूतन स्फूर्ति एवं चैतन्यता प्राप्त होगी। इसके विपरीत भय, चिन्ता, द्वेष एवं मनोमालिन्य की भावनाएं शरीर के घटकों में अज्ञात विष उड़ेलती रहती हैं जिससे जीवन शक्ति तथा कार्यक्षमता नष्ट होती है तथा अनगिनत रोग और पीड़ाएं उत्पन्न होती हैं। स्वस्थ रहने के लिये यह परमावश्यक है कि हमारे मन में निराशा, चिन्ता, दुर्बलता और अवसाद के विचार न आने पायें। रोगों की जड़ें शरीर में नहीं अपितु मन में होती हैं। मानसिक प्रदूषण को दूर करने के लिए, आन्तरिक पर्यावरण के शोधन के लिए उन्नत-विचार, अन्तःकरण की पवित्रता, भाव- शुचिता, निष्कामता और सतत् भगवद-स्मरण जैसे उदात्त गुणों का चित्त में अंकुरण अपेक्षित है। अतः पवित्र-विचार अन्तःकरण की शुद्धि का श्रेष्ठ साधन है…।
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पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – मानवीय अंतःकरण में निष्कामता, अकामता और पूर्णता ईश्वर अनुग्रह का ही फलादेश है। श्रीमद्भागवत का मूल है – निष्काम भक्ति। भागवत में कहा गया है “मेरा मूल विषय है – निष्काम भक्ति”। निष्काम भक्ति का अर्थ है – आप कर रहें हैं फिर भी आप नहीं कर रहें है। निष्कामता वहीँ घटती है जिसमें आपके कर्मो में से “मैं” चला जाये। आपके काम में से जिस दिन कर्तापन के बोध का आभाव हो जाये उस दिन निष्कामता बढ़ती है। त्याग का स्वरूप निष्कामता है। त्याग निष्कामता का प्रवेश द्वार है। त्यागी व्यक्ति ही निष्काम हो सकता है। त्याग की पराकाष्ठा ही निष्कामता है। यही वह मानवीय गुण है, जो व्यक्ति का देवत्व से साक्षात्कार कराता है, सांसारिकता से मुक्ति दिलाता है, ‘स्व’ के दलदल से उबारकर ‘पर’ के कल्याणार्थ प्रेरित करता है और जीवन को परम संतोषी बनाता है। अकरणीय व अधर्म करने से अच्छा है कि व्यक्ति श्रेष्ठ कर्मों को करे और श्रेष्ठ कर्म वो ही होते हैं जिसमें सर्वहित निहित हो। सर्वहित की कामना स्वहित की कामना से श्रेयस्कर होती है। लाेककल्याण की कामना से मनुष्य विषयों में आसक्त नहीं होता। अतः लोकहित की कामना से ही निष्कामी बनना सम्भव है….।
पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – भगवद-स्मरण से अथवा सामूहिक प्रार्थनाओं से वातावरण शुद्ध होता है साथ ही शुभ और पवित्र वातावरण निर्मित होता है। जीवन में प्रार्थना एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया है। इसकी शक्ति में हर धर्म व संस्कृतियों का विश्वास है। भारतीय प्रार्थना पद्धति और पाश्चात्य पद्धति में अंतर यह है कि भारत में प्रार्थना का महत्व समर्पण, निष्ठा, आस्था और निष्कामता में है। हम ईश्वर से केवल आरोग्य ही नहीं मांगते, परंतु अपने विकारों के शमन और कर्मों से आत्मा की मुक्ति की भी प्रार्थना करते हैं। यहां निष्काम प्रार्थना का अधिक महत्व है। जबकि पश्चिम में सकाम प्रार्थना का प्रचलन है। वहां प्रार्थना को भी एक चिकित्सा विधि मानकर चलते हैं। प्रार्थना भावनात्मक चेतना का अहसास है। इसे हम धर्म, जाति, संप्रदाय, देश, काल, भाषा की सीमाओं में नहीं बांध सकते। यह हर उस व्यक्ति का स्वभाव है, जो स्वयं द्वारा स्वयं को पाने का पुरुषार्थ करता है। प्रार्थना है तो व्यक्तित्व है, आदर्श है, उद्देश्य है, विचार है, कर्म है, पहचान है; अन्यथा संस्कारों की भीड़ में भटकता एक निरुद्देश्य इंसानी चेहरा है। प्रार्थना सभी धर्मों में होती हैं। अतः रूप, शब्द, सिद्धांत, शास्त्र और संस्कृति की भिन्नताओं के बावजूद साध्य सबका एक ही है; और वह है – भीतर का बदलाव अथवा स्व की पहचान…।
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