पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
।। श्री: कृपा ।।
पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – मनुष्य को संस्कारित करता है – अध्यात्म; स्वस्थ समाज के लिए करें – आत्म जागरण…! अध्यात्म धर्म ही हमें इस संसार में अर्थ और काम पर नियन्त्रण रखकर हमारे इस संसार को आनन्ददायक एवं सुखद बनाता है। जो सच्चा मानव धर्म है वह केवल और केवल ऋषि-मुनियों, संतों-महापुरुषों से प्राप्त हुआ अध्यात्म ही है। धर्म का आधार ही आध्यात्म है। ज्ञानियों-संतों व योगियों द्वारा दी गई शिक्षा और उनके आचरण ही धर्म के स्त्रोत हैं। जिन्होंने हमेशा समाज को यही उपदेश दिया कि सभी के सुख में ही स्वयं का सुख समाहित है। अतः “सर्वे भवंतु सुखिनः …” की प्रार्थना ही श्रेयस्कर है। परोपकार से दीन-दुःखियों के दुःख दूर करने से जो सुख मिलता है, वह चिरस्थायी और सच्चा होता है। इस सुख की कोई सीमा नहीं। मानव-जीवन का उद्देश्य भी यही है। यह सुख अपने जीवन को समष्टि में घुलाने से होता है। सबके हित में अपना हित समाहित कर देने से जिस दिव्य-ज्योति के दर्शन होते हैं, आत्मा को उससे बड़ा सुख अन्यत्र नहीं मिलता। इसलिये आध्यात्मिक-जीवन को सुखों का मूल कहकर पुकारा गया है। लौकिक कामनाओं की पूर्ति से आँशिक सुख मिलता है, किन्तु सबके कल्याण की भावना से सर्वांगपूर्ण सुख की अनुभूति होती है…।
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पूज्य “आचार्यश्री” जी कहा करते हैं कि जो व्यक्ति अपनी ज्यादा प्रशंसा सुनना पंसद करता है, वह कभी ऊंचाईयों को छू नही पाता। यही अवगुण दशानन रावण में भी था। वह अपनी गलतियों को स्वीकार न करते हुए प्रशांसा सुनने में ज्यादा मन लगाता था। रावण को कई बार उसकी पत्नी मन्दोदरी और भाई विभीषण ने समझाया, लेकिन उसे बात समझ नहीं आई। इसीलिए प्रभु श्रीराम के हाथों रावण का नाश हुआ। पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – धैर्य सफलता की सबसे बड़ी कुंजी है। अध्यात्म का फल है – आत्मविश्वास का जागरण। आत्मविश्वास सबसे पहले हमें विवेक प्रदान करता है। आत्म के साथ जो विश्वास शब्द का मेल है, वह हमें चुनौतियों से जूझने की ताकत देता है और लक्ष्य के पथ पर चलने का मार्ग प्रशस्त करता है। मनुष्य उस परम चेतन का सम्पूर्ण प्रतिबिम्ब है एवं उसका प्रतिनिधि है। इतना बड़ा होने पर भी यदि वह निकृष्ट उद्देश्य के लिये जीता है तो वह अपनी महानतम पदवी ‘मनुष्यता’ को कलंकित करता है। अपनी इच्छा को सुसंस्कृत, पवित्र एवं शक्ति-सम्पन्न बना कर परमेश्वर के प्रधान अंश मनुष्य को उन्नत संकल्पों के साथ सराहनीय जीवन यापन करना चाहिये। अतः यही उसकी मनुष्यता और यही उसकी विशेषता है…।
पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – मनुष्य के लिए कुछ भी असंभव नहीं है, लेकिन दु:ख की बात है कि उसे स्वयं पर ही विश्वास नहीं होता कि उसके भीतर इतनी शक्तियां विद्यमान हैं, और यह शक्तियां सत्यपथ पर चलने से ही मिलती है। साधारण एवं असाधारण व्यक्तियों में जो अन्तर दिखाई देता है, उसका मूलभूत कारण उनकी अपनी-अपनी इच्छा शक्ति ही है। जिन्होंने अपने संकल्पों को ऊँचा बनाया, इच्छाओं को स्वार्थ के दायरे से निकाल कर परमार्थ की ओर निसृत किया। उन्होंने जीवन में महानता पाई और जिन्होंने अपनी इच्छाओं को स्वार्थपूर्ण बना कर निकृष्ट भोगों तक ही सीमित रखा, खाने-पीने और भोग-विलास को ही जीवन का लक्ष्य माना, वह उन्हीं तक सीमित रहकर निकृष्ट बन गए। जिस सीमा तक मनुष्य की इच्छाओं की परिधि फैलती है, उस सीमा तक वह स्वयं भी बढ़ जाता हैं। इस प्रकार जिसकी इच्छाएं व्यापक हैं वह व्यापक और जिसके संकल्प ऊँचे हैं वह ऊँचा बने बिना नहीं रह सकता…।
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