पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
।। श्री: कृपा ।।
पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – आत्मसम्मान-आत्मसन्तुष्टि प्राप्ति की एकमात्र दिशा है – अध्यात्म। और, अध्यात्म का अर्थ है – यथार्थ बोध एवं परमार्थ के लिए प्रचण्ड पुरुषार्थ…! अध्यात्म एक जीवनदृष्टि है, एक विचार शैली है। हमारे अंदर निहित गुणों की संरचना ही हमारा व्यक्तित्व है। व्यक्तित्व को बदलना व परिष्कृत; परिमार्जित करना ही अध्यात्म है। आत्म-संतुष्टि निर्भयता और आनंद की जननी है। जीवन में निर्भयता आनी चाहिए। भय पाप है, निर्भयता जीवन है। जीवन में अगर निर्भयता आ जाय तो दुःख, दर्द, शोक, चिन्ताएँ दूर हो जाती हैं। भय अज्ञानमूलक है, अविद्यामूलक है और निर्भयता ब्रह्मविद्यामूलक है। जो पापी होता है, अति परिग्रही होता है वह भयभीत रहता है। जो निष्पाप है, परिग्रह रहित है अथवा जिसके जीवन में सत्त्वगुण की प्रधानता है वह निर्भय रहता है। पूज्यश्री जी ने कहा – निर्भयता सत्य के बगैर नहीं आ सकती। जीवन में अहिंसा करुणा से, त्याग प्रेम से व अभयता सत्य से आती है…।
Related Posts
पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – आत्मबल बढ़ाने का एक ही तरीका है कि हम सकारात्मक चिंतन करें। आत्म संतुष्टि के लिए सेवा एवं परमार्थ जरुरी है। दूसरों के सुख, सफलता और विकास में अपना सुख देखें, ऐसा भाव मन में पैदा हो कि दूसरों की खुशियां आपको सुख देने लगें, तब आपका दु:ख स्वत: मिट जाएगा। सेवा भाव से किए गए कार्य का फल जब दूसरों की खुशी के रूप में आता है तो अपना मन आंतरिक रूप से प्रफुल्लित हो जाता है। इसलिए परहितार्थ किया गया कार्य आत्मसंतुष्टि और निर्विकार आनंद देता है। अपनी अंतरात्मा की आवाज का अनुसरण करें। अपने सत्य के साथ किसी तरह का समझौता न करें। वस्तुत: आत्मसम्मान का यथार्थ विकास इसी बिंदु पर शुरू होता है। देह की वासना, मन की तृष्णा और अहं की क्षुद्रता को पैरों तले रौंदते हुए जब हम अंतरात्मा के पक्ष में निर्णय लेते हैं, तो हमारा आत्मसम्मान हमारे व्यक्तित्व को आत्मगौरव की एक नई चमक देता है…।
पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – मनुष्य की वास्तविक अंतरात्मा इतनी महान है कि जिसका वर्णन करते वेद भी ‘नेति…. नेति…..’ अर्थात्, न इति … न इति … पुकार देते हैं। मानव का वास्तविक तत्त्व, वास्तविक स्वरूप ऐसा महान है लेकिन भय ने, स्वार्थ ने, रजो-तमोगुण के प्रभाव ने उसे दीन-हीन बना दिया है। इस संसार में प्रेम करने लायक दो वस्तुएं हैं एक दु:ख और दूसरा श्रम। दु:ख के बिना हृदय निर्मल नहीं होता और श्रम के बिना मनुष्यत्व का विकास नहीं होता। विश्वविजेता को भी वो सुख नहीं प्राप्त होता जो आत्मविजेता को प्राप्त होता है। निश्चित ही आत्मसंतुष्टि से बड़ा सुख इस विश्व में कोई नहीं …। परन्तु, आत्मसंतुष्टि का अनुभव आता ही है – दूसरों का भला करने से। कहा जाता है कि किसी रेखा को छोटी करने के लिए उसके समानांतर एक बड़ी रेखा खींचनी पड़ती है। अतः सर्वप्रथम स्वयं को किसी बड़े लक्ष्य से सुसज्जित कर लीजिए। फिर उस लक्ष्य की पूर्ति में मन को डुबो दीजिए। तब आप देखेंगे कि छोटी-मोटी परेशानी, मन का अहंकार, ईर्ष्या आदि नकारात्मक भाव स्वत: ही मिटने लगेंगे। मन उत्साह और आनंद से आवेशित हो जाएगा। “पूज्य आचार्यश्री” जी ने कहा – साधक को अपने जीवन में सच्चे आनंद एवं आत्मसंतुष्टि की प्राप्ति का लक्ष्य बनाना चाहिए और इसके लिए आपको अपने कर्मों को श्रेष्ठ बनाने तथा अपने मनोबल को बढ़ाने की आवश्यकता है। अध्यात्म से व्यक्ति के जीवन में आत्म संतुष्टि एवं प्रसन्नता के साथ सहयोग देने की भावना तथा समस्त मानव जाति के प्रति शुद्ध भावना एवं शुभकामना जागृत होती है। अतः सम्पूर्ण विश्व को स्थायी समाधान केवल अध्यात्म ही दे सकता है….।
Comments are closed.