पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
।। श्री: कृपा ।।
पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – शुभ, सकारात्मक और पारमार्थिक विचार ही आनन्द, ऊर्जा और उन्नयन के स्रोत हैं; अतः पवित्र विचार निमित्त स्वाध्याय हितकर-श्रेयस्कर साधन हैं…! आप जितना मन से पवित्र रहोगे, उतना ही भगवान के करीब रहोगे, क्योंकि सदैव पवित्रता में ही भगवान का वास रहता है। जिसके विचार और चिंतन पवित्र हैं, उससे अपवित्र क्रिया बन ही नहीं सकती, उससे तो विशुद्ध कर्म ही होते हैं। हमें अपनी आँखों मे ज्ञान का काजल लगाकर इन चक्षुओं को पवित्र करना होगा। इससे हमारे दृष्टिकोण में स्वच्छता, समदर्शिता तथा समरसता के भावों का उदय होता है। पवित्र विचार-प्रवाह ही जीवन है तथा विचार-प्रवाह का विघटन ही मत्यु है। सद्विचार ही नैतिकता है। विचार क्रिया में परिवर्तित होते हैं। क्रिया से आदत बनती है। बार-बार की गई क्रियाओं से हमारा स्वभाव और चरित्र बनता है। चरित्र से व्यक्तित्व विकास होता है। समग्र विकसित व्यक्तित्व से हमारा भाग्य बनता है। इस प्रकार हम अपने भाग्य के स्वयं निर्माता है। सफलता प्रकृति का वरदान है। चिकित्सा जगत में चाहे एलोपैथिक हो या आयुर्वेद, कोई ऐसी दवा नहीं बनायी जा सकी है, जो कि घृणा, द्वेष, नफरत, ईर्ष्या व क्रोध को कम कर सके। यदि व्यक्ति स्वाध्याय, सत्संग, ध्यान, प्राणायाम का अभ्यास नियमित रूप से करता है तो उसके अंदर व्याप्त नकारात्मक विचार सहज में ही समाप्त हो जाते हैं। अतः स्वाध्याय-सत्संगति और सत्संग ही आत्म कल्याण के सहज साधन हैं…।
पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – अच्छे संस्कार व पवित्र विचार ही इंसान की धरोहर हैं। शुभ चिंतन करने वाला व्यक्ति अपने शुभ वैचारिकी प्रवाह से मृत्यु तक को चुनौती देने में सक्षम होता है। सकारात्मक सोच व शुभ चिंतन सुख शांति की जननी है। प्रत्येक शब्द का चित्र होता है, जो हम देखते हैं, सुनते हैं, बोलते है हाथों से काम करते हैं, इन सभी क्रियाओं से संग्रहित चित्र मन का स्वरूप धारण करते हैं। ये चित्र नकारात्मक तथा सकारात्मक होते हैं। सकारात्मक विचार मन को शुद्ध करते हैं। अतः कहा गया है – जैसा होगा मन, वैसा बनेगा जीवन। एक मेज पर गिलास जल से आधा भरा है। उसे देख एक व्यक्ति कहता है कि गिलास आधा खाली है। दूसरा कहता है – गिलास भरा है। इस गिलास में वायु भी व्याप्त है। अर्थात्, यह वायु से भी आधा भरा हुआ है, यह सकारात्मक विचार है। सकारात्मक सोच का व्यक्ति कभी भी अभावों की बात नही करता है। वह सदा-सर्वदा प्रत्येक वस्तुओं को भावों से भरा देखता है….।
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पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – सतत् अच्छे कार्य करते रहो और सदा पवित्र विचार मन में सोचा करो। नीच संस्कारों को दबाने का यही एकमात्र उपाय है। चरित्र की रचना संस्कारों के अनुसार होती है और संस्कारों की रचना विचारों के अनुसार। अस्तु- आदर्श चरित्र के लिए, आदर्श विचारों को ही ग्रहण करना होगा। पवित्र, कल्याणकारी और उत्पादक विचारों को चुन-चुन कर अपने मस्तिष्क में स्थान दीजिये। अकल्याणकारी दूषित विचारों को एक क्षण के लिये भी अपने पास मत आने दीजिये। अच्छे विचारों का चिंतन और मनन करिए, अच्छे विचार वालों का संसर्ग करिए, अच्छे विचारों का साहित्य पढ़िए और इस प्रकार हर और से अच्छे विचारों से ओतप्रोत हो जाइए। कुछ ही समय में आपके उन शुभ-विचारों से आपकी एकात्मक अनुभूति जुड़ जाएगी, उनके चिंतन-मनन में निरंतरता आ जायेगी, जिसके फलस्वरूप वे मांगलिक विचार चेतन मस्तिष्क से अवचेतन मस्तिष्क में संस्कार बन-बन कर संचित होने लगेंगे। और तब उन्हीं के अनुसार आपका चरित्र निर्मित और आपकी क्रियायें स्वाभाविक रूप से आपसे संचालित होने लगेगी, और आप एक आदर्श चरित्र वाले व्यक्ति बनकर सारे श्रेयों के अधिकारी बन जाएंगे….।
पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – आज का मनुष्य भौतिक सुखों की प्राप्ति के लिए संसार की चकाचौंध में धन की लालसा में इस प्रकार से भागा चला जा रहा है कि वह स्वयं के अस्तित्व को भूल सा गया है। यही कारण है कि वह परम आनंद से बहुत दूर हो गया है। अगर कोई सच्चा आनंद चाहता है तो उसे फिर से वेदों के स्वाध्याय की और सत्संग की आवश्यकता है। सत्संग आपको लगातार जागरूक रखेगा कि आस-पास के वातावरण पर दृष्टि रखिए, सावधान रहिए। सत्संग दृष्टि देता है कि आप स्वयं को और दूसरों को ठीक से पहचान सकें। जैसे ही आप सत्संग में प्रवेश करते हैं – क्रांति घटती है, स्वयं के निरीक्षण की। सत्संग से आप में विचारों के निरीक्षण की शक्ति आ जाती है, क्योंकि ये विचार ही हमारा व्यक्तित्व बनाएंगे और यदि इसके पहले विचारों का निरीक्षण-परीक्षण ठीक से हो जाए तो आप जीवन की आधी से ज्यादा बाजी तो जीत चुके होते हैं। अत: समय का कितना ही अभाव हो, कुछ समय सत्संग में जरूर बिताएं। चिंतन, स्वाध्याय और संवाद करते रहना चाहिए, तभी समाज और देश में चल रही समस्याओं और उसके समाधान पर आप कोई फैसला कर पाएंगे। अतः चिंतनशीलता मनुष्य को समृद्ध बनाती है, इससे व्यक्तिगत विकास तो होता ही है, इसके साथ ही समाज को भी इसका लाभ मिलता है…।
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