पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
।। श्री: कृपा ।।
पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – मानव-मन की कामनाओं के कोलाहल में आत्म-स्वर शिथिल हो जाते हैं; अतः स्वयं का परिचय प्राप्त कर आत्म-स्वर को प्रबल बनायें, आत्म-निरीक्षण हितकर है…। जीवन को दिव्य बनाने के लिए आत्मनिरीक्षण बहुत जरूरी है। इससे पता चलता है कि अपने अंदर क्या दुर्गुण हैं जिन्हें दूर किया जा सके। जिस तरह एक वायरस पूरे कंप्यूटर की फाइल करप्ट कर देता है, उसी तरह हमारा भी एक अवगुण हमारी सारी खूबियों को गौण बना देता है। मन में अच्छे संकल्प लेकर जीयें तभी आनंद आएगा। हर मनुष्य में वह ताकत होती है कि संसार को जीत ले, लेकिन इसके लिए सबसे पहले इंद्रियों को जीतना होगा। जिसने इंद्रियों पर नियंत्रण प्राप्त कर लिया, वही नेतृत्व कर सकता है। अपने अंदर से भय निकालें, बेकार की चीजें छोड़ें, तभी भय निकलेगा। भय या संशय प्रगति में बाधक होता है। मनुष्य में बड़ी ताकत होती है, लेकिन वह संशय से ढंका रहता है। इसे हटाएं और धैर्य, साहस, शौर्य, पराक्रम का विकास करें। किसी की निंदा न करें, खासकर अपने से बड़े या पूजनीय व्यक्ति की तो कभी भी निंदा नहीं करनी चाहिए। बेहतर जीवन के लिए अच्छा रोल मॉडल होना जरूरी है, इसके बिना जीवन में भटकाव आता है। जब आदर्श हमारे सामने न हों तो हम मूल्यों से भटक जाते हैं….।
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पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – जब तक मनुष्य आत्मनिरीक्षण या आत्म विश्लेषण नहीं करता, तब तक वह प्रभु को प्राप्त नहीं कर सकता। ईश्वर प्राप्ति के लिए ईर्ष्या द्वेष आदि कुटिल भावनाओं का त्याग नितांत आवश्यक है। ईर्ष्या एक प्रकार की आग है, लेकिन यह ऐसी आग है जो दिखाई नहीं देती, जिसका धुआं भी दिखाई नहीं देता। जो आग दिखाई देती है उसको बुझाना सरल है, किन्तु जो दिखाई ही नहीं देता उस ईर्ष्या रूपी आग को किस प्रकार बुझाया जाए? यह बहुत ही विकट प्रश्न है। इसके लिए प्राणिमात्र के प्रति सौहार्द, प्रेम, जन कल्याण की भावना पैदा करनी होगी। दु:ख का सबसे बड़ा कारण यह है कि मनुष्य अपने घर को देखकर उतना प्रसन्न नहीं होता, जितना दूसरों के घर को जलते देख प्रसन्न होता है। यही ईर्ष्या है। जहां ईर्ष्या का निवास है वहां ईश्वर भक्ति नहीं पनप सकती। मानव जीवन बड़े पुण्यकर्मों से मिलता है। इसे यूं ही नहीं गंवा देना चाहिए। इसे सुंदर बनाने के लिए सत्कर्म और स्वाध्याय का आश्रय लेना परम आवश्यक है। स्वाध्याय का तात्पर्य अच्छे-अच्छे ग्रंथों का अध्ययन करना तो है ही साथ ही अपना अध्ययन करना भी है। इसे आत्मनिरीक्षण की घड़ी भी कह सकते हैं। भक्ति ही जीवन संजीवनी है। तापत्रय से छुटकारा पाने का उपाय है – भगवान श्रीहरि के चरण कमलों का ध्यान करना …।
पूज्य “आचार्यश्री” जी ने उपनिषदों को सत्य तक पहुंचने का एक मार्ग बताया। उनका कहना है कि ये आत्मनिरीक्षण के रास्ते आत्मा की खोज का रास्ता बताते हैं। ये हमें अपने मन की शुद्धि के तौर-तरीके से अवगत कराते हैं। ब्रह्मसूत्र को केंद्र में रखकर वह आत्मा और परमात्मा के संबंध के विभिन्न आयामों और सूत्रों की पड़ताल करते हैं। पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – परनिंदा को छोड़कर स्वयं के आत्मनिरीक्षण की दशा में जाने पर ह्दय में दया, करूणा अनुकंपा के भाव जाग्रत हो जाएंगे। जीवों की रक्षा करने के भाव प्रस्फुटित होने चाहिए। जीवन की कीमत पहचानने वाला और जीव रक्षा करने वाला ही वास्तव में साधक है। ह्दय में परमार्थ के भाव रखें। मन, वचन और कर्म में विवेक रखते हुए धर्म मार्ग पर बढ़ना चाहिए। “आचार्यश्री” जी ने कहा कि कीचड़ में कीड़ा भी रहता और कमल भी; किंतु, कमल कीचड़ में रहते हुए भी निर्लिप्त रहता है। ऐसे ही संसार भी कीचड़ है। अतः इसमें कमल के समान जीयो, कीड़े की तरह नहीं…।
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