पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
।। श्री: कृपा ।।
पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – सांसारिक सम्मोहन एवं आकर्षण-प्रलोभन प्रचंड हैं। भगवत-कृपा, दैव-अनुग्रह, सन्त-सन्निधि और सत्संग ही भवतारक साधन हैं…! ईश्वर कृपा का कोई मूल्य नहीं होता। भगवान ने इस अद्भुत संसार की रचना की है। प्रकृति के द्वारा सभी व्यवस्थाओं को सुचारू रूप से नियंत्रित किया गया है। हमें सूर्य चंद्रमा से ऐसा प्रकाश मिलता है कि हमें उसका कोई शुल्क भी नहीं देना पड़ता। सुरम्य-शीतल हवा का आनंद मिलता है। सुंदर पर्वत, वृक्षावली, रमणीय उद्यान सहित अनेक प्राकृतिक अवदान हमें ईश्वर की सौगात के रूप में मिले हैं; मगर हम इन चीजों के लिए ईश्वर का आभार नहीं करते। यह गहन चिंतन का विषय है कि जो ईश्वर हमारे लिए सब कुछ करे, उसके लिए हम धन्यवाद का एक शब्द भी नहीं कहें। हम ईश्वरीय कृपा का साधुवाद ईश्वर का स्मरण करके कर सकते हैं….।
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आनंद की उपलब्धि के बाद सुख निरर्थक हो जाता है। आनंद की राह सत्संग से होकर ही तो जाती है। सत्संग का अर्थ है – सत्य का सामीप्य या सत् को जानने का प्रयास। आजकल टीवी संस्कृति के पनपने के बाद सत्संग के भी मायने बदल गए हैं। कई चैनल संतों की कथाओं तथा उनके उपदेशों को ‘रिले’ कर रहे हैं और उन्हें सुनकर लोग सामूहिक सत्संग में जाने के प्रति उदासीन हो रहे हैं। ‘कुछ न करने से, कुछ करना बेहतर है,’ इस कहावत को स्वीकारते हुए तो यह ठीक-सा लगता है, लेकिन इससे सत्संग का उद्देश्य पूर्ण नहीं हो पाता। सत्संग का अर्थ है – सद्गुरु से वार्तालाप, अनुभवी साधक के अनुभवों का श्रवण, सद्शास्त्रों का बिना किसी सांप्रदायिक व्याख्या के निष्पक्ष भाव से श्रवण। इससे जीवन में बदलाव आता है। एक क्रांति पैदा होती है सत्संग से। सत्संग का अर्थ है – सत्य की खोज…।
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