पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
।। श्री: कृपा ।।
पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – कारण-परिस्थिति, विषय-वस्तु और दृश्यमान सत्ता सभी में निरंतर परिवर्तन है। अतः अजेय-अविनाशी, नित्य-शाश्वत आत्मतत्व को जानना ही हितकर है…! कलियुग में मनुष्य की आयु मानवीय संसाधन के संग्रह, उनके उपभोग में बीत जाती है और वो आत्मज्ञान से, हरि भजन से विमुख रहता है। यही उसके दुःख का मूल कारण है। आत्म-ज्ञान ही सच्चा ज्ञान है। अन्य सारे सद्ज्ञान तो उस आत्म-ज्ञान की ओर बढ़ने के साधन मात्र हैं। आत्म-ज्ञान हो जाने पर मनुष्य को अन्य ज्ञानों की आवश्यकता नहीं रहती। ज्ञान की परिसमाप्ति आत्म-ज्ञान में ही है। आत्मतत्व को जानें, भीतर की यात्रा करें। सृष्टि का सम्पूर्ण केन्द्र हमारे भीतर है और इसे ही हम विस्मृत कर बैठे हैं। जीवन में आत्म तत्व को जानना ही सबसे बड़ी बात है। आत्मिक शक्ति के विकास के लिए आत्म-चिंतन आवश्यक है। आत्म-विस्मृति के कारण मनुष्य शरीर से अपना तादात्मय स्थापित कर लेता है और घोर देहभान में फँसकर विकारी दुखी और अशांत हो जाता है। तब आत्मचिंतन द्वारा ही वह आत्माभिमानी और निर्विकारी बनकर सच्ची सुख-शान्ति की प्राप्ति कर सकता है। स्वयं को पांच तत्वों का बना विनाशी शरीर नहीं, वरन सदा जगती हुई ज्योती सर्वशक्तिवान परमपिता परमात्मा की संतान ज्योतिबिंदु आत्मा हूँ। इस सत्य की गहरी अनुभूति हो जाने से हमारे जीवन में एक दिव्य और अलौकिक परिवर्तन आता है।
गुणों के सागर परमात्मा के दिव्य चिंतन करने से वे गुण हमारा स्वभाव बनते जाते है और धीरे-धीरे हम सर्वगुण सम्पन्न बन जाते है। अत: आत्म-चिंतन और ईश्वरचिंतन ही आत्म-कल्याण का एकमात्र साधन है….।
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पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – मनुष्य ने हर क्षेत्र में प्रगति की है। फिर भी सुख, सन्तोष, शान्ति, प्रसन्नता का जीवन में अभाव है। इस सबका कारण है – आत्म विस्मृति। सच्ची सुख-शान्ति का स्त्रोत भौतिक साधन नहीं है। उसका स्त्रोत आत्मानुसंधान है, गुण, कर्म, स्वभाव की उच्चता है। सारे संसार का ज्ञान होने पर भी यदि हम अपने गुण, कर्म, स्वभाव को उन्नत और निष्पाप न बना सके तो यही मानना होगा कि अभी हम ज्ञान के प्रकाश से रहित और अज्ञान के अंधकार से ग्रसित हैं। जिस क्षण से हमें कुविचारों और दुष्कर्मों से घृणा और सन्मार्ग पर चलने की प्रवृत्ति होने लगे, तब समझना चाहिए कि हम ज्ञान की किरणों के संपर्क में आने लगे हैं। इस प्रकार सच्चा ज्ञान आत्म-चिन्तन से ही प्राप्त हो सकता है। आत्म-चिन्तन में तल्लीन व्यक्ति की बुद्धि स्थिर हो जाती है। शुभाशुभ कर्मों से उत्पन्न होने वाला हर्ष-शोक, विक्षोभ, प्रसन्नता आदि असन्तुलन उसे प्रभावित नहीं करने पाते। वह हर्ष-शोक, अनुकूलता-प्रतिकूलता दोनों, स्थितियों में समान बना स्थित रहता है। इसी को आध्यात्मिक आनन्द कहा जाता है। मानव जीवन की सफलता आत्म-साक्षात्कार है। आत्मा को पाना, उसमें निवास, उसके संकल्प के प्रति सचेतन होना, यह हम सब का प्रथम कर्तव्य है। यही जीवन और जन्म को सच्ची सार्थकता प्रदान करता है। आत्मा को प्राप्त करने के पश्चात् ही हम यह समझने में समर्थ होते हैं कि ‘‘मैं कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ, यह जगत क्या हैं, इसकी रचना करने वाली शक्ति कौन है और उसका स्वरूप क्या है? आत्मा ही हमारी अपनी सत्ता का और जगत सत्ता का मूलभूत सत्य है। जिस प्रकिया के द्वारा हम इस आत्मा को उपलब्ध करते है, उसे शास्त्रों में योग कहा है। आत्मज्ञान मन के भीतर की जागरूकता है। आत्माज्ञान अस्तित्व के साथ एकत्व की अनुभूति है…।
पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – आज का पूरा का पूरा समय हमारे लिए अन्धानुकरण का है और हम सभी लोग अपने आप को भुला बैठे हैं। अपनी संस्कृति, संस्कारों और परंपराओं को तिलान्जलि देकर उन लोगों के पीछे भाग रहे हैं जिनके लिए न कोई कुटुम्ब है, न संस्कृति और न ही सभ्यता। जो कुछ है खाओ-पीओ और मौज करो के सिद्धान्त को आकार देने वाला है। मतलब यह है कि जो पशु कर रहे हैं वही हम लोग भी कर रहे हैं। फिर कौन सा अन्तर रह गया है हममें और उनमें? असल में हमारी स्थिति भेड़ों की उस झुण्ड जैसी ही है जिन्हें यह तक पता नहीं रहता कि उन्हें कौन कहाँ ले जा रहा है, क्यों जा रहे हैं? बस आगे वाले जा रहे हैं इसलिये हम भी पीछे-पीछे हो लिए। यह जीवन एक प्रयोगशाला है, जिसका जितना अधिक शोधन, दोहन और अनुसंधान किया जाए उतना सार तत्व प्रकट होता है, उतनी ही जिज्ञासाओं, शंकाओं और प्रश्नों का समाधान मिलता जाएगा। हममें से अधिकांश लोग हमेशा सशंकित जीवन जीते हैं और किसी ठोस निर्णय के करीब पहुंचने से पहले ही भ्रमित होकर अपने रास्ते बदल डालते हैं। हम थोड़ा सा कुछ कर डालते ही बड़ा सा फल पाने की उम्मीद में इतने अधिक आतुर रहते हैं कि हम हर बार थोड़े-थोड़े प्रयास ही करके छोड़ते रहते हैं और इसका परिणाम यह होता है कि हमें अपने पर भी अश्रद्धा हो जाती है और अपने कर्म पर भी। आत्म-ज्ञानी स्वयं अपनी आत्मा में संतुष्ट रहता है। सुख-साधनों की बहुतायत अथवा अल्पता से वो प्रभावित नहीं होता। हम जिसे जानना चाहते हैं वो सब कुछ हमारे भीतर में उपलब्ध है। आवश्यकता है तो मात्र जानने भर की। आत्मा और परमात्मा का सनातन और शाश्वत संबंध है। जो आत्मातत्त्व को जान लेता है वो परमात्मा को जान लेने की अपार क्षमताएं स्वयं ही प्राप्त कर लेता है…।
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