नंबर प्लेट बदलने का खेल: करोड़ों का नुकसान खनन माफिया और प्रशासन की मिलीभगत से

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देहरादून, 9 अप्रैल  — उत्तराखंड में अवैध खनन का गोरखधंधा अब एक संगठित आपराधिक नेटवर्क का रूप ले चुका है। हालिया रिपोर्टों और न्यायिक टिप्पणियों से स्पष्ट हो गया है कि खनन माफिया प्रशासन की नाक के नीचे, और संभवतः उसकी मिलीभगत से, करोड़ों रुपये की अवैध कमाई कर रहे हैं।

नंबर प्लेट बदलने की तरकीब से खनन माफिया हजारों वाहनों का उपयोग करके प्रतिबंधित क्षेत्रों से अवैध खनन सामग्री अपने रास्ते ले जा रहे हैं। नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (CAG) की जांच में इस बात का खुलासा हुआ है कि राज्य में पंजीकृत 4.37 लाख वाहनों में से 1.18 लाख वाहनों की जांच करने पर 43,000 वाहन अवैध खनन में संलिप्त पाए गए हैं। इससे राज्य को भारी राजस्व नुकसान हुआ है।

CAG की रिपोर्ट में यह बात भी जताई गई है कि यह अवैध गतिविधि में कुछ सरकारी अधिकारियों को जुड़े रहने का संदेह है। इस बारे में कई मामलों में यह पाया गया कि जानबूझकर नंबर प्लेट बदलकर जानवर चालक वाहनों का उपयोग अवैध खनन और ओवरलोडिंग के लिए किया।

नैनीताल हाईकोर्ट ने भी इस सारे प्रकरण पर सख्त रुख अपनाया है। 2025 की शुरुआत में कोर्ट ने बाजपुर इलाके में कोसी नदी से जारी अवैध खनन पर स्वतः संज्ञान लेते हुए पुलिस और प्रशासन को सख्त कार्रवाई के आदेश दिए। कोर्ट ने साफ़ निर्देश दिए कि मशीनें जो खनन में उपयोग हो रही हैं उन्हें तत्काल सीज करना होगा और दोषियों पर मुकदमे दर्ज करने होंगे।

मार्च 2025 के महीने में हरिद्वार का सांसद त्रिवेंद्र सिंह रावत ने भी यह मामला लोकसभा में उठाया। उन्होंने लोकसभा में सरकार पर आरोप लगाते हुए कहा कि अधिकारियों की चालाकी के इस प्रयत्न का परिणाम यह हुआ है कि अवैध खनन होता आ रहा है। रावत ने इस बात भी बताया कि कई ओवरलोडेड ट्रक रात के वेल में नदियों से खनन पदार्थ अवैध ले जा रहे हैं और प्रशासन यह सब देखता है, देखता है।

राष्ट्रीय हरित अधिकरण (एनजीटी) ने भी उत्तराखंड समेत कई राज्यों में नदियों में जारी अवैध खनन पर चिंता व्यक्त की है। एनजीटी ने सुनिश्चित शब्दों में कहा है कि वैज्ञानिक शोध और पर्यावरणीय मूल्यांकन के बिना खनन करना न केवल अवैध है, जैव विविधता के लिए भी खतरनाक है।

इन सभी बयानों और रिपोर्टों से स्पष्ट है कि अवैध खनन अब एक स्थानीय समस्या नहीं रह गया है, बल्कि यह एक गंभीर आर्थिक और पर्यावरणीय संकट का रूप ले चुका है। प्रशासन की अनिष्क्रियता और शायद मिलीभगत ने इस संकट को और गहरा कर दिया है।

अब यह देखना होगा कि न्यायपालिका और केंद्र सरकार की सख्ती के बाद राज्य सरकार क्या सकारात्मक कदम उठाती है, ताकि उत्तराखंड की नदियाँ और प्राकृतिक संसाधनों को इस लूट से बचाया जा सके।

 

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