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पूनम शर्मा भाजपा के तमिलनाडु अध्यक्ष के. अन्नामलाई को लेकर राजनीतिक हलकों में हलचल तेज हो गई है। अन्नामलाई को दक्षिण भारत में ‘योगी मॉडल’ के समान देखा जा रहा था — एक ईमानदार, आक्रामक और स्पष्टवक्ता नेता के रूप में, जिसकी अपील जातिगत सीमाओं को पार कर जाती है। परंतु सवाल यह भी है कि क्या भाजपा उनके नेतृत्व में अपने दम पर आगे बढ़ सकती है या फिर उसे गठबंधन की राजनीति करनी पड़ेगी?
पिछले विधानसभा चुनावों में भाजपा को 11% वोट प्राप्त हुए, और अन्नामलाई की अगुवाई में पार्टी ने एक प्रभावी जनसंवाद स्थापित करने की कोशिश की। खासकर पीएमके के विरोध में अन्नामलाई की स्थिति सशक्त रही, जिससे उनका कद और बढ़ा।
हाल ही में डीएमके के एक मंत्री, जो वन विभाग से जुड़े थे, पर आरोप लगने और उन्हें पार्टी पदों से हटाने के बाद यह बात उभरी कि डीएमके में भी किसी हद तक अन्नामलाई को एक गंभीर विपक्षी चेहरा माना जा रहा है। यह एक संकेत है कि भाजपा एक वैकल्पिक व्यवस्था तैयार करने में सफल हो रही है।
जहाँ जातिगत समीकरणों की बात है, तमिलनाडु की राजनीति में गौंडर, देवर, तेलुगु और अन्य समुदायों की भूमिका प्रमुख है। भाजपा ने विभिन्न जातियों के नेताओं को राज्य अध्यक्ष बनाकर सामाजिक संतुलन बनाने की कोशिश की है, लेकिन चुनावी सफलता तभी संभव है जब ये समुदाय एकजुट होकर भाजपा के साथ खड़े हों।
अब बात है कि अन्नामलाई को राज्यसभा भेजा जा सकता है, ताकि उनकी राष्ट्रीय भूमिका को मजबूत किया जा सके। यह भी माना जा रहा है कि उन्हें कर्नाटक और केरल जैसे राज्यों में भी अभियान चलाने की जिम्मेदारी दी जा सकती है, जहां भाजपा दक्षिण भारत में अपने विस्तार के लिए प्रयासरत है।
भ्रष्टाचार विरोधी छवि के लिए अन्नामलाई को तमिलनाडु और तेलंगाना राज्यों में प्रभावी ढंग से पेश किया जा सकता है। इन दोनों राज्यों में सरकारी दलों की छवि भ्रष्टाचार के साथ जुड़ी हुई है, और भाजपा यह स्थिति का फायदा उठाने की रणनीति पर काम कर रही है।अंततः, भाजपा को यह तय करना होगा कि वह दक्षिण भारत में एक अकेली आवाज के तौर पर आगे बढ़ेगी या स्थानीय दलों के साथ सामंजस्य बैठाकर सत्ता प्राप्ति की ओर कदम बढ़ाएगी। अन्नामलाई इस पूरे परिदृश्य में एक मेंटर और प्रतीकात्मक नेता के रूप में जरूर बने रहेंगे।
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