आस्था के नाम पर अतिक्रमण: विधिक और सांस्कृतिक जवाबदेही के लिए चेतावनी

पर यह केवल भूमि अतिक्रमण का मामला नहीं है। यह एक ऐसा आईना है जो लंबे समय से जारी एक गंभीर प्रवृत्ति को उजागर करता है—कुछ ईसाई मिशनरी नेटवर्क द्वारा धार्मिक सेवा के नाम पर सार्वजनिक भूमि पर अवैध कब्जा और व्यावसायिक उपयोग।

यह अवैध निर्माण एक दिन में नहीं हुआ। 1997 से 1999 के बीच इसे एक 4000 वर्ग फुट का विवाह भवन बनाकर शुरू किया गया, जिसमें कोई वैधानिक अनुमति नहीं थी। धीरे-धीरे इसे एक चर्च में बदल दिया गया। 2024 में बिना किसी अनुमति के एक 50 फुट ऊँचा ग्रोटो भी जोड़ दिया गया—जो धार्मिक आस्था का नहीं, बल्कि योजनाबद्ध विस्तारवाद और प्रणालीगत धोखाधड़ी का प्रतीक था।

इस पूरे घोटाले के पीछे जिन लोगों के नाम कोर्ट में सामने आए—पादरी एंटनीराज, ठेकेदार टाइटस थांगा प्राइमस, और पैरिश डेवलपमेंट कमेटी के सदस्य—उन्हें अब कई कानूनी उल्लंघनों के लिए जिम्मेदार ठहराया गया है। दस्तावेजों की जालसाजी से लेकर फंड की हेराफेरी तक, उन्होंने न केवल कानून तोड़ा बल्कि उस धर्म का भी दुरुपयोग किया जिसका वे प्रतिनिधित्व करते हैं।

एक मामले में इन लोगों ने चर्च की मुहर का दुरुपयोग करते हुए चेन्नई नगर निगम को एक फर्जी पत्र भेजा, जिससे वे अवैध निर्माण की जांच से बच सकें। कोर्ट ने भी इस फर्जीवाड़े को पहचाना और अपने फैसले में इसे दर्ज किया।

सबसे चिंताजनक है इस परियोजना में हुआ आर्थिक कदाचार। चंदा जुटाने के लिए एक अवैध लॉटरी चलाई गई, जो सीधे तौर पर तमिलनाडु पुरस्कार योजना (प्रतिबंध) अधिनियम का उल्लंघन था। कोई लेखा परीक्षण नहीं, कोई सार्वजनिक वित्तीय रिकॉर्ड नहीं। सिर्फ नकद पैसे का प्रवाह—धार्मिक सेवा की आड़ में—जो नैतिकता और कानून दोनों का गंभीर उल्लंघन है।

अब इस धन का कोई स्पष्ट रिकॉर्ड नहीं है—पैसे कहां से आए, कैसे खर्च हुए, किसने कितना लिया—ये सवाल अब भी अनुत्तरित हैं। इतना तय है कि यह कोई धार्मिक सेवा नहीं थी, बल्कि एक सुनियोजित साजिश थी जो अवैध भूमि अधिग्रहण और वित्तीय गोपनीयता को धार्मिक आवरण में छिपा रही थी।

कोर्ट में प्रस्तुत फोटो और अब सार्वजनिक मंचों पर साझा की जा रही तस्वीरें उन चेहरों को उजागर करती हैं जो इस अतिक्रमण के पीछे थे—टाइटस थांगा प्राइमस, श्री भास्कर, श्री एबिनीस सान्थुराज उर्फ एबेनेज़र, और श्री सेबस्टियन—जिन्होंने निर्माण और धन संग्रह की गतिविधियाँ संचालित कीं।

चर्च के भीतर ली गई दूसरी फोटो श्रृंखला में विकास समिति के सदस्य—लीमा रोज, पादरी जयराज, श्री राजेश, ग्रेसी एबिनीस, और फिर से पादरी एंटनीराज तथा टाइटस—दिखते हैं, जो अब कानूनी जांच के दायरे में हैं।

मद्रास हाईकोर्ट ने संबंधित अधिकारियों को 12 सप्ताह के भीतर इन अवैध इमारतों को गिराने और दोषियों पर सख्त कार्रवाई करने का आदेश दिया है। यह सिर्फ चेन्नई ही नहीं, बल्कि पूरे भारत के लिए एक निर्णायक क्षण है, जहां लंबे समय से धार्मिक अतिक्रमण पर कार्रवाई नहीं हो रही थी।

और सबसे चिंताजनक है इस पूरी घटना पर मीडिया की चुप्पी। जब मंदिर की कोई रस्म या किसी सन्यासी का वक्तव्य राष्ट्रीय बहस बन जाता है, तो फिर इतनी बड़ी न्यायिक कार्रवाई को मीडिया से क्यों छुपाया गया?

यह चुप्पी संयोग नहीं, बल्कि एक बड़ी प्रवृत्ति का हिस्सा है, जहां कुछ धार्मिक संस्थानों—विशेष रूप से वक्फ बोर्ड या ईसाई मिशनरी नेटवर्क से जुड़े संस्थानों—को कानून उल्लंघन के बावजूद सार्वजनिक जांच से बचा लिया जाता है। धर्मिक संस्थानों पर लागू होने वाली निगरानी और जवाबदेही का स्तर समान होना चाहिए, पर अक्सर ऐसा नहीं होता।

यह कोई एकमात्र मामला नहीं है। चेन्नई का यह प्रकरण एक बड़े और खतरनाक ट्रेंड की ओर इशारा करता है—मिशनरी विस्तारवाद का। भारत के कई ग्रामीण और जनजातीय क्षेत्रों में चर्च और मिशनरी संगठन अवैध रूप से भूमि खरीद कर रहे हैं और उन्हें व्यावसायिक धार्मिक केंद्रों में बदल रहे हैं।

ये गतिविधियाँ अक्सर मानवीय सेवा या धार्मिक प्रचार के नाम पर की जाती हैं, लेकिन जमीनी हकीकत में इनमें धोखाधड़ी, कागज़ी हेरफेर, और स्थानीय समुदायों का शोषण शामिल होता है। भूमि पहले अतिक्रमण या अनौपचारिक समझौतों के जरिए ली जाती है और फिर सामुदायिक दबाव या फर्जी दस्तावेजों से वैध बनाई जाती है।

2024 में लीगल राइट्स प्रोटेक्शन फोरम (LRPF) ने आर्चबिशप जॉर्ज एंटोनीसामी के खिलाफ सांप्रदायिक आधार पर वोटरों को प्रभावित करने की कोशिश की शिकायत दर्ज की थी। अब कोर्ट के इस निर्णय से यह और स्पष्ट होता है कि कुछ धार्मिक संस्थान और धर्मगुरु अपने मंचों का इस्तेमाल आध्यात्मिक सेवा के बजाय राजनीतिक और भौगोलिक लाभ के लिए कर रहे हैं।

हाल ही में संसद में पारित वक्फ संशोधन विधेयक 2025 अवैध अतिक्रमण वाली भूमि को पुनः प्राप्त करने और संस्थानों को जवाबदेह ठहराने की दिशा में एक सराहनीय कदम है। लेकिन जांच निष्पक्ष होनी चाहिए। यदि वक्फ बोर्ड के अवैध कब्जों पर कार्रवाई हो सकती है, तो ईसाई मिशनरियों और चर्च संगठनों के उल्लंघनों पर भी उतनी ही सख्ती होनी चाहिए।

राज्य को कानून का एकपक्षीय प्रवर्तक नहीं बनना चाहिए। वह एक समूह को दंडित करे और दूसरे की अनदेखी करे, यह न्याय नहीं है। सार्वजनिक संपत्ति का मतलब है जनता की संपत्ति—ना कि मंदिरों, चर्चों या मस्जिदों की निजी संपत्ति। और कोई भी धार्मिक स्थल—हिंदू, ईसाई या मुस्लिम—जो भवन नियमों की अवहेलना करे, दस्तावेजों में धोखाधड़ी करे या कानून को चुनौती दे, उसे कठोरता से निपटाया जाना चाहिए।

मद्रास हाईकोर्ट का यह निर्णय धार्मिक अवसरवाद के विरुद्ध कानून के शासन को सुनिश्चित करने की एक सीधी पुकार है। धर्म व्यक्तिगत और पवित्र है—पर जब धर्म का उपयोग धोखाधड़ी, फरेब और अतिक्रमण के औजार के रूप में किया जाए, तो वह अपना उद्देश्य खो देता है।

यह निर्णय एक राष्ट्रीय बहस की शुरुआत होनी चाहिए। क्या हम एक राष्ट्र के रूप में हर बार आंखें मूंद लेंगे जब अवैधता धार्मिक आवरण में लिपटी हो? या हम खड़े होंगे—सिर्फ सार्वजनिक भूमि ही नहीं, बल्कि सार्वजनिक विश्वास की रक्षा के लिए?

यही शुरुआत हो। यही वह समय हो जब हम सिर्फ दर्शक न रहें। कानून को न केवल धर्मनिरपेक्ष बल्कि साहसी भी होना चाहिए, ताकि वह उन पर भी कार्रवाई कर सके जो धर्म को ढाल बनाकर अपराध करते हैं।

भारत को चाहिए एक संतुलित और निर्भीक मीडिया, एक सक्रिय न्यायपालिका और एक सजग नागरिक समाज। तभी हम अपने संविधान की आत्मा और सभी धर्मों की पवित्रता को समान रूप से सुरक्षित रख पाएंगे।

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