सुप्रीम कोर्ट: रोहिंग्या बच्चों के स्कूल में दाखिले पर अहम जनहित याचिका पर सुनवाई

मामले की पृष्ठभूमि

रोहिंग्या समुदाय के हजारों शरणार्थी भारत में विभिन्न राज्यों, विशेष रूप से दिल्ली, जम्मू, राजस्थान और हरियाणा में रह रहे हैं। इनमें बड़ी संख्या में बच्चे भी शामिल हैं, जिनका भविष्य शिक्षा के अभाव में अनिश्चित बना हुआ है। सरकार द्वारा कई बार यह स्पष्ट किया गया है कि रोहिंग्या अवैध प्रवासी हैं और उन्हें भारत में रहने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। इसके बावजूद, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और कुछ संगठनों का तर्क है कि बच्चों को शिक्षा का अधिकार देना उनके मूलभूत मानवाधिकारों का हिस्सा होना चाहिए।

जनहित याचिका में क्या मांग?

इस मामले में दायर जनहित याचिका में यह अपील की गई है कि भारत में रहने वाले रोहिंग्या शरणार्थियों के बच्चों को देश के शिक्षा प्रणाली में शामिल होने दिया जाए। याचिकाकर्ताओं का कहना है कि संविधान के अनुच्छेद 21A के तहत सभी बच्चों को शिक्षा का अधिकार प्राप्त है, और इसे नागरिकता की शर्तों से जोड़ा नहीं जाना चाहिए।

याचिकाकर्ताओं का तर्क है कि शिक्षा एक मौलिक अधिकार है और सरकार को “सर्व शिक्षा अभियान” तथा शिक्षा का अधिकार (RTE) अधिनियम, 2009 के तहत इन बच्चों को स्कूलों में दाखिला देना चाहिए।

सरकार का पक्ष

सरकार की ओर से पहले भी ऐसे मामलों में यह कहा गया है कि रोहिंग्या शरणार्थी अवैध रूप से भारत में रह रहे हैं और उन्हें किसी तरह की सरकारी सुविधा देना नीतिगत रूप से गलत होगा। गृह मंत्रालय ने कई बार यह स्पष्ट किया है कि भारत संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी संधि का हस्ताक्षरकर्ता नहीं है और इसीलिए देश को कानूनी रूप से रोहिंग्याओं को शरणार्थी का दर्जा देने की बाध्यता नहीं है।

इसके अलावा, सरकार यह भी मानती है कि यदि इन बच्चों को शिक्षा दी जाती है तो यह भारत में अवैध अप्रवास को बढ़ावा दे सकता है और भविष्य में अन्य शरणार्थी समूह भी इसी आधार पर अधिकार मांग सकते हैं।

मानवाधिकार संगठनों का रुख

मानवाधिकार संगठनों का मानना है कि भले ही रोहिंग्या समुदाय के वयस्कों की नागरिकता पर विवाद हो, लेकिन बच्चों को इस विवाद का शिकार नहीं बनाना चाहिए। अंतरराष्ट्रीय कानून और संयुक्त राष्ट्र द्वारा बच्चों की शिक्षा को मूलभूत अधिकार माना गया है, और इसे किसी भी स्थिति में बाधित नहीं किया जाना चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट की संभावित भूमिका

सुप्रीम कोर्ट के समक्ष यह मामला संवेदनशील और कानूनी दृष्टि से जटिल है। यदि अदालत सरकार के पक्ष को मानती है, तो इसका मतलब यह होगा कि रोहिंग्या बच्चे सरकारी स्कूलों में दाखिला नहीं पा सकेंगे। वहीं, यदि सुप्रीम कोर्ट शिक्षा को मौलिक अधिकार के रूप में प्राथमिकता देती है, तो सरकार को विशेष नीति बनाकर इन बच्चों को शिक्षा का अवसर देना पड़ सकता है।

निष्कर्ष

यह मामला न केवल रोहिंग्या शरणार्थियों के लिए बल्कि भारत की शिक्षा नीति और मानवाधिकार नीति के लिए भी एक महत्वपूर्ण परीक्षण है। सुप्रीम कोर्ट का निर्णय इस परिदृश्य में एक नई मिसाल स्थापित कर सकता है और यह तय करेगा कि भारत सरकार और उसकी न्याय प्रणाली इस संवेदनशील मुद्दे को किस प्रकार हल करती है। अब देखना यह होगा कि अदालत इस पर क्या फैसला सुनाती है और इसका आगे क्या प्रभाव पड़ता है।

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