पूज्य सद्गुरुदेव अवधेशानंद जी महाराज आशिषवचनम्

            ।। श्री: कृपा ।।
 पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – कारण-परिस्थिति, विषय-वस्तु और दृश्यमान सत्ता सभी में निरंतर परिवर्तन है। अजेय, अविनाशी, नित्य और शाश्वत आत्मा के सत्य को जानना ही हितकर है..! जगत परिवर्तनशील है, वस्तु-पदार्थ, जीव, जड़-चेतन सभी में हर पल परिवर्तन है। विवेक मनुष्य को सही दृष्टि प्रदान करने में समर्थ है। परिवर्तन अवश्यम्भावी है क्योंकि यह प्रकृति का नियम है। संसार में कोई भी पदार्थ नहीं जो स्थिर रहता है। क्षण न व्यतीत होते जैसे मेघ अनेक रंग बदलता है, अथवा जैसे बिजली [आकाशीय] पूरे क्षण भर भी नहीं ठहरती, अथवा व्याकुल मनुष्य का चित्त जैसे स्थिर नहीं रहता, ठीक  वैसे ही यह संसार परिवर्तनशील है। इसका क्षण-क्षण में नाश होता जाता है, इसलिए इसे अश्वत्थ कहते हैं। धरती पर प्रत्येक वस्तु और प्राणी का अंत निश्चित है। धरती पर जो भी आया है उसे काल का ग्रास बनना पड़ता है। परिवर्तनशील वस्तुओं में नहीं मिलता – शाश्वत सुख। धरती पर कोई भी मनुष्य परमात्मा की भक्ति के बिना पूरा नहीं है। वास्तव में विचारधारा से ही मनुष्य के जीवन को गति मिलती है। संसार से बड़ा कोई रोग नहीं और सुविचार से बड़ी कोई औषधि नहीं। ईश्वर अनंत ऊर्जा का भंडार है जो चैतन्य युक्त सर्वज्ञ और सर्व शक्तिमान है, वही ऊर्जा करोड़ों रूपों में परिवर्तित होकर सृष्टि के असंख्य ब्रह्मांडों के रूप में रचना करके इसे परिवर्तनशील रखती है। अनन्तता ईश्वर का स्वभाव है। जो नित्य है निरंतर है जिसकी सत्ता प्रत्येक काल में विद्यावान है। ऐसे अजेय चिरकालीन अच्युत पुरुष का नाम ही ईश्वर है। जब आप ईश्वर का स्मरण करने बैठें तो अपनी सत्ता का विस्मरण कर दें और परमेश्वर की शाश्वत सत्ता का ध्यान करें….।
???? पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – चाहे मनुष्य को अपने अंत का पता है, लेकिन फिर भी मनुष्य में जीवन की पहली लालसा रहती है कि वह काल से किस प्रकार बचे। मनुष्य की सबसे पहली इच्छा अपने जीवन को बचाना है। अपने जीवन को बचाने के लिए चाहे कितने भी कष्ट क्यों न सहन करने पड़े। जीवन के उपरान्त ही मनुष्य को सुख-सम्मान आदि अन्य इच्छाएं होती है। पूज्यश्री ने कहा कि मनुष्य हमेशा भूल जाता है कि भक्ति के मार्ग के बिना उसे मुक्ति नहीं मिल सकती। परमात्मा की भक्ति के बिना मनुष्य का जीवन अधूरा है। जहां भक्ति है, संतों का संग है वहीं सुमति है। जहां सुमति होगी, वहां ज्ञान और वैराग्य होंगे, संतों का संग ईश्वर के मार्ग पर ले जाता है। संत वही है जिसके अंदर संतता हो, सत्य का आचरण करने वाला हो। उन्होंने कहा कि जीवन एक युद्ध क्षेत्र है, जिसमें एक के बाद दूसरा दु:ख आता रहता है। जो निराश नहीं होकर हरपल भगवान का स्मरण करता है, वह युद्ध क्षेत्र में विजयी हो जाता है। ध्रुव के समान हर मनुष्य परमात्मा को प्राप्त कर सकता है। संसार से मुक्त हो सकता है। जिस मानव शरीर को पाने के लिए देवता निरंतर तरसते हैं। उसी मानव देह को प्राप्त करके भी मनुष्य अपने मूल उद्देश्य को भूलकर भौतिक सुख सम्पदा जुटाने में अपना जीवन गंवा रहा है। सत्संग से भक्ति एवं ज्ञान की प्राप्ति होती और संसार के विषयों से वैराग्य होता है…!
???? पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – वैराग्य ज्ञान की पराकाष्ठा को कहते हैं। बच्चा बड़ा होकर खिलौनों से खेलना इसलिए बन्द कर देता है कि उसे इनकी वास्तविकता का ज्ञान हो जाता है। जिस मनुष्य को यह पता लग जाये कि उसे कुछ दिन बाद मरना है तो उसे नींद नहीं आती, स्वादिष्ट भोजन भी अच्छा नहीं लगता और धन ऐश्वर्य होते हुए भी जीवन नीरस, फीका व स्वादरहित हो जाता है। इस स्थिति के बनने पर अध्यात्मिक ज्ञान व ईश्वरोपासना आदि साधनों से जीवन को सुखी, आनन्दयुक्त व सरस बनाया जा सकता है। “आचार्यश्री” जी ने कहा – प्रभु प्रेम से मिलेगा वैराग्य का चरम। काम को पराजित करने वाले नारद को अपने महान् वैराग्य का गर्व हो गया। अपनी काम विजय की गाथा उन्होंने शिव, ब्रह्मा एवं विष्णु को सुना डाली। सर्वेश्वर ने उनके गर्वहरण के लिए लीला रची। जिन नारद के वैराग्य का प्रभाव कुछ ऐसा था कि – ‘काम कला कछु मुनिहि न व्यापी। निज भय डरेउ मनोभव पापी …॥’ अर्थात् काम की कोई भी कला नारद मुनि को नहीं डिगा सकी और वह कामदेव अपने पाप से डर गया। वहीं महर्षि नारद कुछ ऐसे हो गए कि – ‘जप तप कुछु न होई तेहि काला। हे विधि मिलहि कवन विधि बाला॥’ अर्थात्, उनसे उस समय कुछ भी जप-तप साधन नहीं बन पड़ा। बस वे यही सोचने लगे कि हे विधाता ! किस तरह मेरा विवाह इस कन्या से हो जाय। यह कथा सुनाते हुए गुरुदेव ने कहा था कि सब कुछ होने पर भी जब तक अहं का भगवान् में समर्पण, विसर्जन, विलय नहीं होता, तब तक कभी वैराग्य सिद्ध नहीं होता। भक्तिमार्ग में पहले ही कदम पर अहं का बलिदान करना पड़ता है। इसीलिए भक्त को अपने आप ही सिद्ध वैराग्य मिल जाता है…।

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