।। श्री: कृपा ।।
पूज्य सद्गुरुदेव जी ने कहा – प्राकृतिक नियमों का निर्वहन, शास्त्रों का सैद्धांतिक अनुकरण, जीवन मूल्यों का अनुसरण और गुरु द्वारा उपदेशित मार्ग अनुगमन ही कल्याणकारक है…! ईश्वर के साक्षात्कार के लिए सद्गुरु का सानिध्य आवश्यक है। सच्चे मन से अगर सद्गुरु को देखा जाए तो सद्गुरु में ही ईश्वर की छवि छुपी होती है। ईश्वर संसार में साकार नहीं है, वह निराकार है। उसका कोई आकार नहीं है। इसलिए वह अपने आप को सद्गुरु के रूप में प्रस्तुत कर मार्ग दर्शन करता है, जिससे मानव जाति का कल्याण हो रहा है। गुरु और शिष्य के बीच केवल शाब्दिक ज्ञान का ही आदान-प्रदान नहीं होता है, बल्कि गुरु अपने शिष्य के संरक्षक के रूप में भी कार्य कर रहे होते हैं। सद्गुरु सदैव अपने शिष्यों का भला ही चाहते हैं। सद्गुरु शिष्यों के अन्तःकरण में ज्ञान का प्रकाश फैलाते हैं एवं उनके अंदर के अज्ञान रूपी अंधकार को दूर कर देते हैं। जो साधक श्रद्धाभाव से सद्गुरु की शरण में आते हैं वे ज्ञान के समुद्र में गोते लगाते हैं। कहा भी गया है कि “श्रद्धावान लभते ज्ञानम् …” अर्थात्, श्रद्धावान को ज्ञान प्राप्त होता है । यदि विद्यार्थियों के अंदर श्रद्धा होती है तो शिक्षक उसे अपना समस्त ज्ञान दे देते हैं। गीता में भगवान श्रीकृष्ण जी ने गुरु-शिष्य परम्परा को “परम्पराप्राप्तम योग” बताया है। गुरु-शिष्य परम्परा का आधार सांसारिक ज्ञान से शुरू होता है, परन्तु इसका चरमोत्कर्ष आध्यात्मिक शाश्वत आनंद की प्राप्ति है, जिसे ईश्वर-प्राप्ति व मोक्ष प्राप्ति भी कहा जाता है। बड़े भाग्य से प्राप्त मानव जीवन का यही अंतिम व सर्वोच्च लक्ष्य होना चाहिए….।”
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पूज्य “आचार्यश्री” जी कहा करते हैं कि साधु बनने का जिनका मन करता है वो कभी घोषणा नहीं करते हैं कि हम साधु बनना चाहते हैं। कपड़े ना रंगें, चंदन माथे पर सन्यासियों जैसा ना लगायें और न ही हिमालय की किसी कन्दराओं में ही खो जायें। ध्यान रहे, एक दिन संन्यास जैसी स्थिति में जीयें कि त्याग किसे कहते हैं, संयम, वैराग्य आदि किसे कहते हैं। किसी को कानों-कान पता ना चले, उस दिन आप स्वाद ना लें। अस्वाद, अक्रोध, अनिंदा, अवैर, विनय, क्षमाशीलता, परदोष दर्शन का अभाव, योगी जैसे जीता है वैसे जी कर देखें। पूज्य आचार्यश्री ने कहा – अगर ऐसे कुछ दिन का आपका अभ्यास हो जाये तो फिर देवता बन कर जीने का प्रयास करना। देवता कैसे जीते होंगे। और, देवता बनने का अभ्यास हो जाये तो भगवान बन कर जीना। कहना शंकर से, मेरा मन कहता है कि मैं शंकर बन जाऊं। जिस दिन शंकर बनने का मन करेगा, ध्यान रखना फिर विषपान करने में आप संकोच नहीं करोगे। एक दिन ब्रह्मा बन कर देखना, समूची सृष्टि आप को अपनी लगने लगेगी। एक दिन नारायण बनकर देखना, उदार बन जाओगे। लेकिन एक ही प्रार्थना करना चाहूँगा, साधु मत बनना, देवता मत बनना, शंकर मत बनना, ब्रह्मा मत बनना, भगवान मत बनना। हाँ !!! आदमी बन जाना, इसी में जीवन की धन्यता, जीवन की पूर्णता है…।
पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – हमारे जितने दु:ख हैं, उनका एक ही कारण है – आत्म-विस्मृति। हम कभी खुद को जान या पहचान नहीं पाते। स्वयं के प्रति अज्ञानता, अल्पज्ञता के कारण स्वयं को नहीं खोज पाना ही हमारे दु:ख का मूल कारण है। श्रवण को सबसे श्रेष्ठ साधना हमारे शास्त्रों ने भी माना है। श्रवण बहुत पुरानी विधा है। पंछियों, परिंदों, चांद-तारों, वृक्ष, बादलों को भी श्रवण का माध्यम माना गया है। वेद पढऩे के लिए नहीं, सुनने के लिए है। रामकथा और भागवतकथा भी पढ़ने के लिए नहीं, सुनने और पीने के लिए है। उपदेश भी पढ़े नहीं, सुने और ग्रहण किए जाते हैं। कथा आपके होने और सत्यता से परिचित कराती है। पूज्यश्री ने कहा – सफलता का एक ही मंत्र है – समर्पण। परमार्थ को पाने के लिए और द्वंद्व, अज्ञान, आलस्य, संशय से मुक्ति के लिए रामकथा और भागवतकथा से श्रेष्ठ और कोई साधन नहीं हो सकता। और, कथा के माध्यम से खुद को एकाग्र कर इस सृष्टि पर आप विजय पा सकते हैं। अपने ही इन्द्रियों को जीतना, अपने ही स्वरूप को जानना और खोजना ही कथा का फल है। कथा से आत्मज्ञान का बोध होता है…।
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