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पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
।। श्री: कृपा ।।
पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – भारतीय संस्कृति की अस्मिता एवं आध्यात्मिक चेतना के उत्थान का पर्व है – “गुरु पूर्णिमा”। दुर्बोध को सुबोध, अलभ्य को सुलभ और असम्भव को सम्भव बनाने की योग-युक्ति के प्रदाता श्रीगुरु को नमन !! भगवान शिवजी कहते हैं – “हे पार्वती ! गुरु ही देव हैं, गुरु ही धर्म हैं, गुरु में निष्ठा ही परम तप है। गुरु से अधिक और कुछ नहीं हैं। गुरु ज्ञान का भंडार तथा सद्ग्रंथों का सार हैं। गुरु दीपक का प्रकाश है जो अज्ञानता का अंधकार दूर कर जीवन में शांति, प्रसन्नता व समाधि का मार्ग दिखाते हैं। वास्तव में कर्म प्रधान इस संसार में गुरु की आवश्यकता मनुष्य को पग-पग पर होती है। हमारे जीवन को आंतरिक रुप से सुंदर और व्यवस्थित बनाने में गुरु की भूमिका वैसी ही है जैसे एक कुम्हार की। जैसे कुम्हार एक सुंदर घड़े के निर्माण में सतत् सावधानी बरतता है कि कहीं कोई कंकड़ या पत्थर घड़े में ना रह जाए, ठीक उसी प्रकार सदगुरु हमारे अंदर से दुर्गुणों को दूर कर सत्य के मार्ग पर चलने को प्रेरित करते हैं। गुरु की पूजा, वंदन आदर भाव का मूल अर्थ किसी व्यक्ति विशेष की आराधना नहीं, बल्कि विचारों की आराधना एवं परब्रह्म परमात्मा की साधना है। कहने का भाव यह है कि हमें उस गुरु की आराधना करनी है जिनके द्वारा जगत को दिए जाने वाले ब्रह्मज्ञान से मनुष्य का जीवन, दिव्य बन जाता है। प्रत्येक मनुष्य के जीवन में गुरू का आशीर्वाद एवं मार्गदर्शन अति आवश्यक है। सद्गुरु परमात्मा की खोज का पथ प्रशस्त कराता है। गुरु वह सेतु है जिस पर चलकर शिष्य परमात्मा तक पहुंचता है…।
पूज्य “आचार्यश्री” ने गुरु महिमा की चर्चा करते हुए कहा – गुरु परम्परा, सिद्धांतों व नियमों का नाम है। गुरु नाम में ही बड़प्पन है। गुरुवाणी ही समाज को दिशा देती है। समाज को अज्ञान के अंधकार से दूर करने का कार्य गुरु ही करते हैं। गुरु देव की कृपा से ही वह ज्ञान उपलब्ध होता है जो मुक्ति से भी बड़ी भक्ति की राह दिखाता है। यद्यपि शास्त्र और सभी धर्म ग्रन्थ गुरु हैं, फिर भी गुरु की आवश्यकता है। गुरु की आवश्यकता सभी पूर्व के महापुरुषों द्वारा कही गयी है। भगवान् शिव, श्रीकृष्ण एवं भगवान श्रीराम तक के समय में भी गुरु परम्परा है। यद्यपि श्रीराम स्वयं परब्रह्म परमात्मा हैं, तथापि मानव देह में मनुष्यों को धर्म शिक्षण हेतु वो भी गुरु परंपरा अपनाते हैं, ताकि सामान्य मानव को गुरु परम्परा का महत्व समझ में आ सके। बिना ज्ञान तो मानव को मानव भी नही कहा जा सकता है। यदि ईश्वर प्राप्ति की और अग्रसर होना चाहते हो तो गुरु केवल एक शब्द भर नहीं है, गुरु सार है। बिन गुरु कृपा के ईश्वर कृपा नही होती है। ऐसा शास्त्र भी कहते हैं। वस्तुत: एक साधक के लिए आवश्यक है कि वह गुरु चरणों और गुरु वचनों में पूर्ण निष्ठा रखे। जितनी निष्ठा परिपक्व होती जाएगी, उतना ही आत्म-कल्याण का मार्ग नजदीक आता जायेगा…।
पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – सच्चा गुरु शिष्य को सही मार्ग निर्देशित करके न केवल उसके जीवन-मार्ग को प्रशस्त करता है, बल्कि उसे आध्यात्मिक ऊंचाइयों की ओर ले जाने में भी सहायक होता है। गुरु को परमात्मा से भी श्रेष्ठ माना है। फिर किसी ने पूछा – गुरु कौन? जिसके कारण हम यह जान सकें कि सच क्या है। जब जीव और ब्रम्ह के बीच का आवरण भंग हो जाये। उघरहिं विमल विलोचन हिय के…। गुरु उसे कहा है कि जिसकी कृपा से हृदय के नेत्र खुल जाए। बुद्धि की आँखे नही, मन की आंखें नही, वो तो संसार के लोग ही खोल देते हैं। ह्रदय की आँखें तो सद्गुरु की कृपा से खुलती है। अंतर चक्षु जिनकी कृपा से खुलती है उन ग्रंथों को प्रणाम, उन संतों को प्रणाम, उन ऋषि-मुनियों को प्रणाम, माता-पिता परिजन-पुरजनों को प्रणाम जिनकी वजह से कुछ सीखा है। ये देश गुरुओं को देश है, सत्पुरुषों का देश है। अंतत: जीवन की सार्थकता को सिद्ध करने के लिए हमें सद्गुरु के अनुरूप जीवन जीना होगा। उनके सिद्धान्तों को अपनाना होगा। उनके द्वारा बताए हुए मार्ग पर चलना होगा, क्योंकि गुरु सिर्फ एक शिक्षक ना होकर हमें संकटों से उबारने वाला मार्गदर्शक होते हैं। हमें जहां से भी, जिससे भी कुछ सीखने को मिले, उसका हमें सम्मान करना चाहिए, आदर देना चाहिए। गुरु और शास्त्रों के अभ्यास से जब अंतःकरण पवित्र होता है, तब आत्मसत्ता स्वाभाविक ही प्रकट होती है। गुरु और शास्त्र हृदय के मलिन भावों को दूर करते हैं और जब हृदय की मलिनता हट जाती है तब आत्मसत्ता, गुरुसत्ता स्वतः ही प्रकट हो जाती है…।
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