पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – भूल जाएं, और क्षमा करें, इसी में परम शांति है। इसीसे आपका जीवन दिव्य बनेगा। मानवता का मोती है – क्षमा। क्षमा, मानवता और जीवन की महत्ता को समर्पित एक अप्रतिम अनुष्ठान है। क्षमा के बिना चित्त को विरल शान्ति कभी नहीं मिलती। जीवन के इस यथार्थ को वही जानता है, जो इस अनुभव से गुजरता है। क्षमा ने ही युगों-युगों से मानव-जाति को नष्ट होने से बचाया है। जो क्षमा करता है और बीती बातों को भूल जाता है, उसे ईश्वर की ओर से उपहार मिलता है। मनुष्य की श्रेष्ठता इसी में है कि वह अपनी भूलों को स्वीकार करे। जो अपराध को स्वीकार नहीं करता, वह अपराध से कभी मुक्त भी नहीं हो पाता…।
पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – वर्त्तमान में रहें, साक्षी भाव, सकारात्मक सोच और सत्य-निष्ठा कल्याणकारी साधन हैं। जो वर्तमान में सजग है, उसका भविष्य कभी अंधकारमय हो ही नहीं सकता। साक्षी भाव, धर्म का मूल और सार है। जब हम साक्षीभाव से विचारों का अवलोकन करते हैं तब हमें यह समझ में आता है कि – “विचार आते-जाते है, किन्तु मैं नहीं आता-जाता हूँ, मैं सदा अपरिवर्तनीय हूँ। विचार [मन] दृश्य है और मैं साक्षी आत्मा हूँ। मैं मन नहीं हूँ तथा मैं मन का साक्षी आत्मा हूँ”। साक्षीभाव से मन से तादात्म्य समाप्त होता है। समस्त दुःख-सुख मन में हैं, अहंकार भी मन का हिस्सा है। मन से जुड़ाव समाप्त होते ही दुःख, अहंकार, कामना सभी गिर जाते हैं…।
पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – “साक्षी भाव” का मनुष्य के जीवन में अपना महत्व है। साँसों के आवागमन को देखना, विचारों के आने-जाने को देखना, सुख और दुःख के भाव को देखना और इस देखने वाले को भी देखना। यह वैसी प्रक्रिया है जबकि समुद्र की उथल-पुथल अचानक रुकने लगे और फिर धीरे-धीरे कंकर, पत्थर और कचरा नीचे तल में जाने लगे। जैसे-जैसे साक्षी भाव गहराता है, मानो जल पूर्णत: साफ और स्वच्छ होने लगता है। पुरुषार्थ के अंतिम चरण यानी मोक्ष की गति में साक्षी भाव मनुष्य मन की समस्त वृत्तियों को एकाकार कर सत्व की ओर ले जाता है…।
पूज्य “आचार्यश्री” जी कहा करते हैं कि अतीत से निकलें और वर्तमान में जीयें। जब लोग भूतकाल को पुरुषार्थ मानते हैं तो वह आत्मग्लानि और पश्चाताप से भर जाते हैं और जब वे भविष्य को भाग्य मानते हैं तो सुस्ती और जड़ता उनके ऊपर प्रभावी होने लगती है। लेकिन ज्ञानी लोग भूतकाल को भाग्य और भविष्यकाल को पुरुषार्थ मानते हैं। जब आप भूतकाल को नियति मान लेते हैं तो मन और जीवन में और अधिक प्रश्न नहीं उठते हैं और मन को आराम मिल जाता है। तो चलिये, भूतकाल को भुलाएं और भविष्य में जीयें। महापुरुष कहते हैं – जब तक आप अपने अतीत को याद रखेंगे, भविष्य की योजना कैसे बना पाएंगे?
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पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – अपना गंतव्य स्टेशन निश्चित करके हम रेलगाड़ी में बैठते हैं, बीच में अनेक बातें होती हैं, खड़ा रहना पड़ेगा, कई तरह के लोग मिलते हैं, लेकिन निर्धारित स्टेशन पर उतरने के बाद हम प्रसन्न होते हैं, उस प्रसन्नता में हम पिछला सब भूल जाते हैं। उसी तरह हमें भगवान की प्राप्ति करनी है, यह निश्चित करने के बाद हमें अनुसंधान में रहना चाहिए। तब गृहस्थी की अड़चनों का महत्व क्षणिक होता है, लेकिन पहले ध्येय निश्चित कर लेना चाहिए। भगवान का नाम भगवान की कृपा के लिए लेना चाहिए, अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए नहीं। नामस्मरण ही हमें ध्येय की सिध्दि करा देगा।
भारतमाता मन्दिर के संस्थापक निवर्तमान शंकराचार्य पद्मभूषण परम गुरुदेव जी का ये कथन है – हम चित्र के नहीं, चरित्र के उपासक हैं। प्रतिष्ठा इंसान के बाहर से आती है और चरित्र भीतर से विकसित होता है। आपकी प्रतिष्ठा एक घंटे में जानी जा सकती है और चरित्र एक साल तक रोशनी में नहीं आता। जो धैर्यवान नहीं है, उसका न वर्तमान है और न ही भविष्य। आप अपना भविष्य नहीं बदल सकते, पर आप अपनी आदतें बदल सकते हैं और निश्चित रूप से आपकी आदतें आपका फ्यूचर बदल देगी। जीवन में कठिनाइयाँ हमें बर्बाद करने नहीं आती है, बल्कि यह हममें हमारी छुपी हुई सामर्थ्य और शक्तियों को बाहर निकलने में हमारी मदद करती है। कठिनाइयों को यह जान लेने दो कि आप उससे भी ज्यादा कठिन हो। हमारे अन्दर वह शक्ति है कि हम स्वयं को जिस रूप में गढ़ना चाहें वही बन जायें। अतः आज जो हम हैं, अगर वह हमारे पूर्व कर्मो का परिणाम है तो निश्चित रूप से हमारे वर्तमान कर्म हमारे भावी निर्माण की नीव है…।”
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