कब तक बहेगा हिंदुओं का खून? कश्मीर से बंगाल तक जारी है मौन नरसंहार

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भारत में बहुसंख्यक समुदाय होने के बावजूद, आज हिंदू होना सबसे बड़ा अपराध क्यों बनता जा रहा है? यह सवाल बार-बार उठता है, लेकिन हर बार सत्ता, न्यायपालिका और तथाकथित सेकुलर मीडिया की चुप्पी इस प्रश्न को मार देती है। पहलगाम की ताज़ा त्रासदी, जिसमें यात्रियों की पहचान धर्म के आधार पर की गई और हिंदुओं को चुनकर मौत के घाट उतार दिया गया — यह केवल एक आतंकी हमला नहीं, बल्कि सुनियोजित ‘हिंदू टार्गेटिंग’ है।

जब लोग गुरु स्थल पर ईमानदारी से जा रहे हैं और वहीं उनकी गुरु समुदायात्मक पहचान पूछकर उन्हें मारा जाए — यह हमें 1990 के दशक की कश्मीरी हिंदुओं की त्रासदी की याद दिलाता है। क्या हमने कुछ सीखा? क्या भारत की सरकारें, राज्य हों या केंद्र, इस निरंतर दोहराई जा रही त्रासदी को केवल आंकड़ों और प्रेस विज्ञप्तियों तक सीमित रख देंगी?

कश्मीर की मिट्टी फिर लाल हो रही है — लेकिन मीडिया शांत है

पिछले कुछ वर्षों से यह दावा किया जा रहा था कि कश्मीर में शांति लौट रही है। धारा 370 के हटने के बाद सरकार ने कड़े कदम उठाने के संकेत दिए थे, लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि टार्गेटेड किलिंग्स का सिलसिला थमा नहीं है — बल्कि अब यह और भयावह रूप ले रहा है।

अब सवाल यह उठता है — अगर केंद्र शासित प्रदेश में भी हिंदुओं की सुरक्षा सुनिश्चित नहीं की जा सकती, तो और कहाँ सुरक्षित होंगे वे? क्या यह प्रशासनिक विफलता है, खुफिया तंत्र की चूक है, या फिर एक  चुप्पी, जो कुछ ‘तुष्टिकरणवादी’ समीकरणों का परिणाम है?

बंगाल: जहाँ सत्ता की राजनीति हिंदू खून से सनी है

कश्मीर की स्थिति उतनी ही पश्चिम बंगाल में भी बदतर  है। हर चुनाव के बाद हिंसा होती है, और उसका शिकार बनते हैं वही लोग जिनकी आस्था, पहचान और विचार हिंदू होने से जुड़े हैं। मुर्शिदाबाद, बीरभूम और उत्तर 24 परगना जैसे ज़िलों से आने वाली रिपोर्ट्स यह दिखाती हैं कि कैसे स्थानीय प्रशासन और राज्य सरकारें आंखें मूंदे हुए हैं। हिंसक भीड़, अल्पसंख्यक कट्टरवादी गिरोह और राजनीतिक प्रोटेक्शन — तीनों इतने मिलकर एक वातावरण बना चुके हैं जहां हिंदू डर के बनाए हुओं साये में जी रहा है, और बाक़ी देश बस देख रहा है।

 न्यायपालिका की चुप्पी और बुद्धिजीवियों की मूक स्वीकृति

क्या यह सोचने की बात नहीं है कि जिस देश की न्यायपालिका हर छोटी बात पर स्वतः संज्ञान लेती है, वह इन हमलों पर चुप क्यों है? जब कश्मीर में हिंदू यात्रियों को धर्म के आधार पर मार दिया जाए, या बंगाल में सरेआम हिंदू महिलाओं को अपमानित किया जाए — तो ‘लिबरल लॉबी’ कहाँ छिप जाती है?

क्या ‘ह्यूमन राइट्स’ कुछ चुनिंदा समुदायों के लिए ही सुरक्षित हैं? क्या हिंदुओं के अधिकारों की रक्षा अब इस देश में सेकुलरिज़्म के खिलाफ गिनी जाएगी?

 आत्ममंथन का समय सरकार के लिए

सरकार को अब यह तय करना होगा कि वह केवल चुनावी हिंदुत्व की बात करेगी या वाकई हिंदुओं की सुरक्षा को प्राथमिकता देगी। अगर टार्गेटेड किलिंग्स पर केवल ट्वीट कर देना ही पर्याप्त है, तो फिर राष्ट्र की आत्मा को कौन बचाएगा?

कश्मीर और बंगाल — दोनों ही जगह इस बात के गवाह बन चुके हैं कि हिंदू अब केवल ‘वोट बैंक’ नहीं रहा, बल्कि एक निशाना बन चुका है। और यह देश तभी तक एक राष्ट्र कहलाने का अधिकारी है जब तक वह अपने नागरिकों की, विशेषकर बहुसंख्यकों की, रक्षा कर सके।

अब चुप रहना अपराध है

यह समय है जब हम सभी को — सरकार, मीडिया, नागरिकों और न्यायपालिका को — इस सवाल का जवाब देना होगा: क्या हिंदू की जान की कोई कीमत नहीं? क्या ‘धर्मनिरपेक्षता’ का अर्थ केवल हिंदू विरोध बनकर रह गया है?

जब तक हर भारतवासी यह नहीं कहता कि “हर हिंदू की जान की रक्षा इस राष्ट्र का प्रथम कर्तव्य है,” तब तक यह देश अधूरा है।

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